जोधपुर के अनादि देव “मण्डलनाथ” : एक विशिष्ट विवेचना

जोधपुर के अनादि देव “मण्डलनाथ” : एक विशिष्ट विवेचना  by Dr. Jitendra Vyas

Mandalnath mahadev

Mandalnath Mahadev

आज का यह आलेख मंडलनाथ महादेव के गर्भगृह व शिवलिंग विशेष पर आधारित है, मैंनें यहाँ मंडलनाथ महादेव के इतिहास को छोड़कर इतर सभी मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है । आदि काल से ही आर्यों की आदि देव महादेव में अनन्त आस्था रही है । महादेव की मूर्ति रूप में तो पूजा की ही जाती है । इसके अलावा लिंग पूजा का भी विशेष महत्व है । वैदिक काल में लिंग का विशेष महत्व नहीं था किन्तु पौराणिक काल में इसका प्रचलन बढा, तब से लेकर वर्तमान काल में मूर्तियों की अपेक्षा शिवलिंग की अत्यधिक पूजा की जाती है।

शिव लोक कल्याण हेतु सद्योजात, वामदेव आदि अनेक रूपों में प्रकट हुए हैं । इसी क्रम में एकादश रूप अथवा द्वादश शिव की कल्पना की गई है । इस कल्पना का मूलाधार पंचमुख शिव है, शिव के पाँच मुख हैं – 1. सद्योजात 2. वामदेव 3. अघोर 4. तापपुरुष 5. ईशान वैसे तो भगवान शंकर सर्वत्र ही पूजनीय है, किन्तु मंडलनाथ स्वयंभू शिव की महिमा अन्नत है। यह लिंग शिव एवं शक्ति का सम्मिलित रूप है । यह एक स्वयंभूचल बाण लिंग है –

लिंगमर्थ हि पुरुष शिवं गमयतीत्यद: ।

शिवशक्त्योश्च चिहन्स्य मेलनं लिंगमुच्यते॥

यह शिवलिंग स्वयंभू बाणलिंग है, जो की शास्त्रों के अनुसार एक अंगुलमान के अनुरूप ही  निश्चित किया हुआ है, जो भक्तगणों को ऐश्वर्य इत्यादि प्रदान के करके मोक्ष की ओर प्रवृत्त करता है । मण्डलनाथ महादेव एक पाषाण लिंग है, जो कि चल लिंग की श्रेणी में आता है चूंकि पृथ्वी पर पौराणिक काल के तुरंत बाद से ही पाषाण लिंगों का प्रयोग सतत रहा है अतः “गरुड़ पुराण” के अनुसार इसी पाषाण लिंग की पुजा अर्चना में समानान्तर विविध पदार्थों से करीब 40 प्रकार के शिवलिंग एक भचक्र में बना कर साथ-साथ ही पूज्य हैं(विषयांतर होने के कारण उनके नाम यहाँ नहीं दिये जा रहे हैं) । जिनसे जातकों को उनके कार्यों में अभीष्ट सिद्धि होती है।

मण्डलनाथ शिव “पुंशिला” के रूप में प्रकट हुए हैं, यद्यपि लिंग की शिलाएँ तीन प्रकार के होती  हैं, 1) पुंशिला 2) स्त्रीशिला 3) नपुंसक शीला, यहाँ शिवलिंग पुंशिला देव है, मण्डलनाथ महादेव के लिंग को ध्यान से देखा जाए तो आपको प्रतीत होगा कि यह लिंग हाथी की पीठ पर लटकते हुए घण्टे जैसे शब्द वाली शिला की तरह है, जो कि पुंशिला का लक्षण है, और ऐसी शिला ही शिव को पसंद है।

एकवर्णा घना स्निग्धा मूलाग्रादार्जवान्विता ।

अजघंटारवाघोषा या सा पुंशिला प्रकीर्तितां ॥

ध्यान रहे कि शिव भक्त भविष्य में यदि शिवलिंग कि स्थापना करवाएँ तो “सकलं निष्कलं मिश्रम् कुर्यात् पुंशिला सुधी: ।” अर्थात सकल, निष्कल एवं मिश्र का निर्माण ही पुंशिला से करना उपयुक्त होगा । मण्डलनाथ शिवलिंग जोधपुर नगराभिमुख प्रकट हुया और शास्त्र भी यह कहते हैं कि यदि परमात्मा का मुख नगरभिमुख हो तो वह श्रेष्ठ होता है।

“नगराभिमुख: श्रेष्ठा मध्ये बाह्ये च देवता: ॥“

इसी कारण स्वयंभू शिवलिंग का आशीर्वाद हमे सतत मिल रहा है, लेकिन कुछ विरक्तजन परमात्मा के निर्गुण रूपों कि आराधना कर्ता हैं, क्योंकि उन्होने निर्गुण ब्रह्म की उपासना को प्राथमिकता दी है, अतः महादेव के इस प्रासाद वास्तु (Astro-Physics) को नकारते हैं, और नकारेंगे (प्रासाद शब्द भगवान के घर अर्थात देवालय के रूप में प्रयोग होता है) वहीं मेरे जैसे सहस्त्र सनातनी, सगुण लिंग पूजा में विश्वास रखते हैं । मैं लोगों को बता दूँ कि सगुण व साकार ईश्वर की उपासना निराधार नहीं हो सकती है क्योंकि सगुण आराधना के लिए साधक को आधार या आलम्बन की आवश्यकता होती है, अतः हिन्दू धर्म में साकार परमात्मा की उपासना के लिए विभिन्न रूप, नाम एवं गुणों के आधार पर लिंग पूजा की कल्पना की गई ।

वैसे तो शिव सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वहितोपकारी है, लेकिन यह मण्डलनाथ शिवलिंग वर्षों से ब्राह्मणों द्वारा (विशेषकर पुष्टिकरणा अपभ्रंश पुष्करणा) पूजित हो रहा है, अपने उद्भव एवं प्रतिष्ठा काल से यथास्थित में है अतः इसकी पूजा अनन्त गुणा फलदायी है। यथा-

“स्वस्थाने संस्थितं यस्य विप्रवास्तुशिवालयम् ।”

इस मन्दिर के गर्भगृह प्रासादवास्तु के सभी नियमों की पालना करता है, शिवालय के नियमानुसार पूर्वा-पश्चिमाभिमुख शिवमंदिर में जल निकासी का पनाला उत्तर दिशा में रखा जाना चाहिए, जो कि यहाँ है, यह वस्तु स्थिति अत्यंत ही सुखद कही जाएगी क्योंकि यह नियम मण्डलनाथ महादेव को विशेष प्रशंसनीय है –

पूर्वापर मुखे द्वारे प्रणालं शुभमुत्तरे ।

पूर्वपरं यदा द्वारं प्रणालं चत्तिरे शुभम् ।

प्रशस्त शिवलिङगाना-मिति शास्त्रार्थ निश्चय: ॥

लेकिन शास्त्र यह भी कहता है कि शिवलिंग के स्नान/जलाभिषेक के बाद जल के निकलने की  निकासी (पनाला) गुप्त होनी चाहिए, ऐसी व्यवस्था वहाँ नहीं रखी गई । यह जल गुप्त मार्ग से होते हुए चंडगण के मुख में ही जाए ऐसा शास्त्र कहता है । लेकिन यहाँ के पदाधिकारी राजनैतिक महत्वकांक्षाओं और भोज व्यवस्थाओं में इतने लिप्त हैं कि उन्हें इस मुख्य दोष की और ध्यान देने का समय नहीं है, ज्ञातव्य है कि जातक और भक्तगण यहाँ शिवलिंग पर जलाभिषेक एवं उसकी भक्ति कर अनन्त फल की प्राप्ति करने के लिए आते हैं, उसके तुरंत पश्चात् अज्ञानता वश वह दिखते हुए शिव के स्नान जल का उल्लंघन (लाघना) कर देते हैं, तो वह कमाये अपने पूर्वकृत पुण्यों का नाश कर देते हैं, अतः इसपे ध्यान दिया जाना चाहिए – यथा

शिवस्नानोदकं गूढमार्गो चण्डमुखे क्षिपेत् ।

दृष्टम् न लङ्घयेतत्र इनित पुण्यं पुराकृतम् ॥

साथ ही “शिवस्यार्धा प्रदक्षिणा” शिव की आधी प्रदक्षिणा का ही फल विधान है, अतः शिव की आधी प्रदक्षिणा ही करें । अधिक जानकारी के लिए आप मेरे द्वारा रचित ग्रंथ “प्रासाद वास्तु वैशिष्ट्य” पढ़ सकते हैं, या मुझसे सम्पर्क कर सकते है।

Blog N0. 117  Date:21/5/2018

Contact: डॉ. पं जितेन्द्र व्यास

(ज्योतिर्विद / लेखक / स्तंभकार / ब्लॉगर)

आचार्य, ज्योतिष

संस्कृत विभाग, जेएनवीयू, जोधपुर

सम्पर्क: 9928391270,

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