करवाचौथ अवैज्ञानिक पर्व: एक ज्योतिषीय विश्लेषण

करवाचौथ अवैज्ञानिक पर्व: एक ज्योतिषीय विश्लेषण blog written by Dr.Jitendra Vyas   

तथाकथित करवा चौथ पर्व भारत के पंजाब, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में यह पर्व मनाया जाता है। देखिये सनातन धर्म में किसी यह त्योहार या परम्परा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिकता जुड़ी होती है, उस त्योहार को मनाने से जातक को लाभ होना, यही सनातन परम्परा का ध्येय रहा है। आइए जानते है, कि इस त्योहार के पीछे कुछ तर्क सम्मत बातें है या नहीं। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह पर्व सौभाग्यवती (सुहागिन) स्त्रियाँ मनाती हैं। यह भी कहा जाता है कि यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब ४ बजे के बाद शुरू होकर रात में चंद्रमा दर्शन के बाद संपूर्ण होता है। लेकिन इस का कोई शास्त्रीय प्रमाण नहीं है, किसी ज्योतिषी को यह पुछ लेने पर कि इसका शास्त्रीय सन्दर्भ बता दीजिये उसका गला सुख जाता है, वह इधर उधर की बात करने लग जाता है लेकिन किसी सन्दर्भ को नहीं दे पाता? अतः आज मैंने इसके गुणधर्म के परिमापन के लिए मेरे इस blog के द्वारा ये प्रश्न उठाएँ है तथा समलोचनात्मक विश्लेषण भी किया है।

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इस कुप्रथा को सवाई माधोपुर के तत्कालीन राजा भीमसेन ने कुछ सौ वर्षो पहले बढ़ाया था, आज मेवाड़ में “चौथ का बरवाड़ा” नामक जगह भी उसकी ही दें, आज भारत के लगभग सभी जिलों में इस पर्व को मनाया जाता है, लेकिन 5 राज्यों में इसे अधिक मानाया जाता है। कई तथाकथित ज्योतिषी इस पर्व को प्रचारित तो करते है, लेकिन इस के बारें कोई ठोस संस्कृत श्लोक, वेदिक या पौराणिक ग्रंथ का नाम नहीं बताते, यदि काल्पनिक रूप से एक घटी के लिए मान भी लिया जाए की यह “श्रुतिकाल” का पर्व है, शब्द “करवा” तो एक पंजाबी शब्द है, और  वैदिक काल में संस्कृत बोली जाती थी, तो यह पंजाबी शब्द का उपयोग श्रुति काल में कैसे हुआ? लेकिन हमारे वैदिक वाङ्ग्मय में चन्द्रमा के प्रभावों का तथा फलों का सम्पूर्ण उल्लेख मिलता है, जो कि इस प्रकार है।

प्रसिद्ध भृगुसंहिताचार्य श्री दिवाकर शास्त्री के अनुसार चँद्रमा अत्यंत आह्लादिनी, सन्तापहारिणी अमृत-रश्मियों का विकिरण करता है । एक ओर विष और दूसरी ओर अमृत । भगवान शिव की शरण में जा कर चँद्र अपने पीछे आते हुए राहु के भय से मुक्त हुआ । द्वितीय का चन्द्र जो उन्होंने शीश पर धरा है उसे राहु का भय नहीं है । द्वितीया के चन्द्र को ग्रहण नहीं लगता है । चाँद स्वच्छ, सुन्दर और नेत्रों को सुखद होता है । यहाँ यह बताने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रही हूँ कि शास्त्रों में वर्णित आख्यानों के अनुसार प्रायः लोक-व्यवहार में भाद्रप्रद मास की शुक्ल-पक्ष की चौथ के चन्द्र के दर्शन का निषेध है । कहीं-कहीं पर तो भादों के दोनों पक्षों की चतुर्थियों का चन्द्र-दर्शन निषिद्ध है । भादों की चौथ का चन्द्र देखने से देखने वाले पर चोरी का मिथ्या आरोप लग जाता है। भगवान कृष्ण को चौथ का चन्द्र देख लेने से चोरी का मिथ्या आक्षेप लगा था। भागवत-पुराण में स्यमन्तक मणि का उपाख्यान आता है जिसमें सत्राजित ने कृष्ण पर उनकी स्यमन्तक मणि को चुराने का झूठा आरोप लगाया था। कहते हैं कि यदि गलती से चन्द्र-दर्शन हो जाये तो उसका परिहार यह है कि भगवन श्रीकृष्ण की उस कथा का (भागवत १०।५७) श्रवण कर ले, जिसमें उन पर झूठा आरोप लगा था। लेकिन सभी चतुर्थीयों का चंद्रमा ही विपरीत फल कारक होता है।

ज्योतिष-चंद्रिका में कहा गया है

सिंहादित्ये भाद्रमासे चतुर्थ्याम् चन्द्रदर्शने मिथ्याभिर्दूषणम् कुर्यात्तस्मातपश्येन्नं तं सदा ।

अर्थात सिंह-राशि में सूर्य के आने पर भादों के मास की चौथ को जो कोई भी चन्द्र-दर्शन करेगा उसे मिथ्या कलंक लगेगा। अन्य सभी तिथियां समुपयुक्त हैं। चँद्रमा कलानिधि हैं। इनकी सोलह कलाएं कही जाती हैं। दिवाकर शास्त्रीजी ने इन षोडश कलाओं के नाम भी अपनी पुस्तक में वर्णित किये हैं, जो इस प्रकार हैं–अमृता, मानदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, शशिनी, चन्द्रिका, कांति, ज्योत्स्ना, श्रिय, प्रीति, अंगदा, पूर्णा, पूर्णामृता। चँद्रमा इन कलाओं को धारण करने से कलाधर कहे जाते हैं तथा शिव इन्हीं कलाधर को धारण करने से कलानिधान के नाम से अभिहित किये जाते हैं। शिव के आश्रय में रहने का प्रभाव गोस्वामी तुलसीदास इस तरह वर्णित करते हैं,

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं श्रीशंकर रूपिणं
यमाश्रितो ही वक्रोsपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ।

उनका कहना है कि मैं श्रीशंकररूपी ज्ञानस्वरूप, नित्य श्रीगुरुजी की वंदना करता हूँ, जिनके आश्रित (शरण) होकर चन्द्र वक्र होकर भी पूजा जाता है । शिव चंद्रार्धधारी हैं । वक्र से शुक्ल-पक्ष की द्वितीय का चन्द्र अभिप्रेत है । इस टेढ़े चन्द्र को राहु नहीं ग्रसता है । ” बक्र चंद्रमहि ग्रसै न राहु “(रामचरितमानस) । शिवजी के ललाट पर स्थित होने से वह वंदनीय हो जाता है । चन्द्र की विशेषताएं बताते हुए `लिंगपुराण` का कहना है कि चन्द्र आह्लाद देते हैं तथा यह शुक्लत्व, अमृतत्व तथा शीतत्व को भी प्रकट करते हैं । उद्भट ने चन्द्र को परोपकारी भी कहा है,

अहो ! महत्वं महतामपूर्वं विपत्तिकाले अपि परोपकारः, यथास्य्मध्ये पतितो अपि राहोः कलानिधिः पुण्यचयं ददाति

अर्थात महान लोगों की महानता अपूर्व है, विपत्तिकाल में भी वे परोपकार करते हैं, जैसे राहु से ग्रस्त होने पर ग्रहण वाले दिन चन्द्र बहुत पुण्यों का देने वाला होता है ।इस श्लोक के अंत में रावण शिव को `जगद्धुरन्धरः` कहता है, क्योंकि वे विश्व के आधार हैं । `जगदाधार शिव को `स्थाणु` के नाम से भी अभिहित किया जाता है । `लिंग-पुराण के अनुसार जो इस विश्व को व्याप्त करके स्थित है वह स्थाणु कहा जाता है । “व्याप्य तिष्ठत्यतो विश्वं स्थाणुरित्याभिधीयते ।” पंच महाभूत-तन्मात्रा-इन्द्रियां-अहंकार-जीव-प्रकृति आदि का कार्य सभी कुछ शिव-आज्ञा का विस्तार है, सब उन्हीं से व्याप्त हैं, अतः वे `स्थाणु` हैं, जगत के आधार हैं ।

आठवें श्लोक में रावण का कहना है कि ऐसे सुखद चन्द्र की कलाओं से और भी मनोमुग्धकारी लगने वाले, गजचर्म से शोभित और भुवन-वंद्या, पुण्यतोया देवापगा कोधारण करने वाले व समस्त जगत का भार वहन करने वाले वे मुग्धेन्दुशेखर मेरी लक्ष्मी की रक्षा करें । मेरी लक्ष्मी अक्षुण्ण रहे, अक्षीण रहे, कभी क्षीण न हो । रावण को यह विज्ञ है कि शिव कलानिधान हैं तो कलातीत भी है, प्रलयंकर हैं तो शंकर, शुभंकर भी हैं, दग्ध करते हैं तो शरण में भी ले लेते हैं । भीम-विक्रम रावण ने अकूत सम्पदा अर्जित की थी । यहाँ यह ध्यातव्य है कि वह शिवजी का शिष्य भी था । उसने कई गुह्य विद्याएँ महादेव से सीखी थीं । ‘स्कंदपुराण’ के अनुसार “ज्ञानं विज्ञानसहितं लब्धतेन सदाशिवात्” अर्थात् उसने सदाशिव से विज्ञान सहित ज्ञान प्राप्त किया था । वह प्रचण्ड पराक्रम व तपोबल से अर्जित अपनी श्री को अखंड रखने की अभ्यर्थना प्रस्तुत श्लोक में जगदाधार महादेव से करता है, जो उन्हीं को प्रसन्न करके उसने प्राप्त की थी ।

रही बात वेदांग ज्योतिष की तो यह ज्योतिष विषय तो एक वैज्ञानिक विषय है, इसकी वैज्ञानिकता का कोई सानी नहीं है, इसकी case study तथा प्रामाणिकता स्वयं सिद्ध है, ज्योतिष में व्रतधर्म के की नियम या व्रत करने की कोई ग्राह्य remedy किसी भी मूल ग्रन्थ में नहीं बतलाई गयी, तो फिर आपके(स्त्री) के किया हुआ व्रत उसके पति के लिए आयु को कैसे बढ़ा सकता है? यदि ऐसा है तो “जैमिनी” इत्यादि आयु के सूत्रों को जला दीजिये, फिर तो ज्योतिष का “विंषोतरी तथा अष्तोतरी” का नियम ही अप्रासंगिक हो गया, अरे कुछ मूर्खों ने तो ज्योतिष की वैज्ञानिक पद्धति को हास्यास्पद बना दिया, यदि पति की आयु इसी सिद्धांत से बढ़ती है, तो पत्नी उसे “अमर” क्यों नहीं कर पाती है? उसे तो सुहागन रहने की चिन्ता तो कानरी ही नहीं चाहिए, फिर ज्योतिषी किसी भी पुरुष को ‘अल्पायु’ या ‘मध्धायु’ क्यों कहते हैं? उसे तो करवा चौथ का उपाय बता कर अमर क्यों नहीं करते? और यदि ऐसा ही सभी पतिदेव अपनी पत्नियों के लिए कर दें तो तो उनको भी अमरता मिल जाए? वो भी तो अपनी पत्नी की आयु को बढ़ाएँ!

धर्मशास्त्र, दर्शन व ज्योतिष इत्यादि विषयों में संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध तीनों कर्मों का तो वजूद ही समाप्त हो गया? जब व्यक्ति अमरता की और बढ़ गया तो परमात्मा के पूर्वजन्मोपार्जित तथा इहोपार्जित कर्मों की जरूरत ही क्या रह गयी? हमारे मूर्ख ज्योतिषों ने तो परमेश्वर की सत्ता को ही धता बता दिया।

हमारे शास्त्रों में, ज्योतिष संहिताओं में तथा बुजर्गों के व्यावहारिक ज्ञान के किसी अनुसार क्या चतुर्थी का चन्द्रमा का देखन निषेध है, क्योंकि इसे देखने से जीवन में कई व्यवधान तथा अपयश आतें हैं, तो फिर किसी की आयु कैसे बढ़ सकती है। यह बात “वराहमिहिर, सत्याचार्य, कादंबिनी” इत्यादि में ग्रंथो में मिलती है।

पाँच राज्यों में करवा चौथ की पाँच अलग-अलग कथाओं का प्रचलन है, जो सभी किंवदंतियों के रूप में पांचों राज्यों में चलती, जिनके कथाओं की कोई प्रासंगिकता व प्रामाणिकता नहीं है। शाब्दिक भाषा में कहे तो उन कथाओं के कोई सिर पैर नहीं है न ही कोई सार है।

इस ब्लॉग के पढ़ने के बाद कृपया तार्किक रूप में ही सोचें, मैं भी उतना ही सात्विक तथा सनातन प्रेमी हूँ जितना की आप! धन्यवाद

blog no. 68,Date : 19/10/2016

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