वास्तु की धार्मिक, पौराणिक तथा वैज्ञानिक अवधारणा

वास्तु की धार्मिक, पौराणिक तथा वैज्ञानिक अवधारणा By Dr. Jitendra Vyas

प्राचीन भारत में भवन व कार्यालय इत्यादि निर्माण को हमारे ऋषियों ने एक शास्त्रोक्त सूत्रों में बांध कर एक शास्त्र प्रस्तुत किया है, जिसे ‘वास्तुIMG_20150528_210339 शास्त्र’ कहा जाता है। कलापूर्ण भवन निर्माण के लिए ही इस शास्त्र का विधान है। आज इस BLOG मैं कोई वास्तु सूत्रों व उपायों पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ, इसकी विस्तृत व्याख्या अन्यत्र की जा सकती है। यहाँ मैंनें ‘वास्तु’ के निहित गूढ़ अर्थ को समझाने का प्रयास किया है। ‘वास्तु’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘वस्’ धातु से हुई है। इस धातु का अर्थ है- किसी एक स्थान पर निवास करना। उणादी सूत्र (वसेस्तुन 1.78) के अनुसार इसमें तुन् प्रत्यय लगाया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि वह घर जिसमें मनुष्य निवास करते हैं। ‘वसन्ति यत्र मानवा:’ इसी प्रकार वास्तु शब्द की उत्पत्ति वस्तु शब्द से हुई है। घर, बंगला, रिसोर्ट, ऑफिस, मॉल, राजप्रासाद, अस्पताल, कॉलेज, स्कूल तथा (किला/महल) इत्यादि समस्त सृष्टि ही वास्तु है, यह बड़ा ही पौराणिक शास्त्र  है। यह विषय वास्तु शास्त्र मानव के लिए ऐसे शान्तिमय वातावरण तैयार करता है जिसमें निवास करने वाले मनुष्य अलौकिक शान्ति का अनुभव करते हैं। मानसिक रूप से शान्त होने से उसका बुद्धि संतुलन सही रहता है। इस कारण स्वाभाविक रूप से उसकी कार्यक्षमता बढ़ जाती है। इस प्रकार वास्तुशास्त्र अप्रत्यक्ष रूप से मानव की उन्नत्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। हमारे शास्त्रों में कहा गया कि वास्तुशास्त्र- सुख, भोग, धन-मान, मित्र, स्त्री, पुत्र, लग्जरी अर्थ, काम, धर्म व मोक्ष देने वाला है। इस शास्त्र की उत्पत्ति मनुष्य की उन्नत्ति के लिए हुई है। यह भौतिक सुखों की प्राप्ति का धर्म है,”यतोअभ्युदय निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:’ जिस धर्म से मनुष्य का अभ्युदय व निश्रेयस दोनों सिद्ध हो, वही धर्म कहलाता है तथा यही धार्मिक अवधारणा है और आज के भौतिक काल में वास्तु शास्त्र बड़ा ही प्रासंगिक धर्म है।

IMG_20150528_210420प्राचीन ऋषियों ने हमारी संस्कृति के सभी पहलुओं को वैज्ञानिक आधार प्रदान करने का विलक्षण गुण था। वे कहीं न कहीं जानते थे कल्कियुग में प्राणी मात्र भी सभी तथ्यों को वैज्ञानिक परिमाप से ही मापेगा, अतः वास्तुशास्त्राकारों ने  इस शास्त्र को वैज्ञानिक आधार देकर ही, मानव मात्र को पूर्णतया कल्याण की ओर प्रवृत्त किया है। प्रकृति, मानव शरीर व वास्तु का आधार पञ्चमहाभूत है:- आकाश, वायु, अग्नि, पृथ्वी व जल। मानव 8 दिशाओं (पूर्व, ईशान, उत्तर, वायव्य, पश्चिम, नैऋत्य, दक्षिण, आग्नेय) के घेरे में रहते हैं उन्हीं दिशाओं से मनुष्य लोग अपने उद्देश्यों (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) की प्राप्ति करते हैं। वास्तुशास्त्र जीवन के सभी उद्देश्यों प्राप्ति हो सकती है। मैं आपको हमारे वास्तुशास्त्र की वैज्ञानिकता से भी अवगत कराता हूँ, जैसे हमें ज्ञात है कि हमारी पृथ्वी पश्चिम से पूर्व दिशा की ओर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा लगाती है। धरती अपने घूर्णनअक्ष से 23 डिग्री झुकी हुई है अतः इस घूर्णन परिधि के कारण ईशान कोण (नॉर्थ-ईस्ट) पूरी तरह से खुल जाता है, इस कारण ब्रह्मांड से अधिकतम ऊर्जा इसी दिशा से पृथ्वी में प्रवेश करती है। इसी वैज्ञानिक गुण को हम वास्तुकारों ने अपनाया है और इसी कारण वास्तुशास्त्र में भूखण्ड का ईशानकोण (नॉर्थ-ईस्ट) वाला क्षेत्र खाली रखने का विधान है, इससे इसकी वैज्ञानिक उपयोगिता सिद्ध होती है। ईशानकोण (नॉर्थ-ईस्ट) वास्तुअनुसार खाली, नीचा व हल्का रखने की दूसरी उपयोगिता यह है कि प्रातःकाल सूर्य उदय के समय जो किरणें निकलती है उनमें vitamin-D व अन्य कई महत्वपूर्ण तत्व होते हैं जो मानव शरीर व हड्डियों के लिए जरूरी होते हैं, जिससे प्रकृति में व्याप्त कीटाणु भी मरते हैं, लेकिन साँयकाल के समय सूर्य इंफ्रारेड किरणें छोड़ता है अतः भवन के नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में ऊँचा निर्माण एवं पेड़-पौधे इत्यादि लगाना ही शुभप्रद रहता है, जिससे भवन में सूरज की इंफ्रारेड किरणों का कम से कम प्रभाव हो, यह कारण पूर्णतया वैज्ञानिक है। जैसे हम सब यह सुनते हैं की वास्तु अनुसार नैऋत्य कोण में भारी वस्तुएँ रखनी चाहिए, शयन कक्ष विशेषकर घर के मुखिया का, इसी दिशा में होना चाहिए इसका भी वैज्ञानिक कारण मैं आपको बताता हूँ, ऊर्जा का शक्तिपुंज ईशान कोण से टकराता है तो वो पूर्व दिशा से होता हुआ आग्नेय (पूर्व-दक्षिण) व उत्तर से होता हुआ वायव्य (उत्तर-पश्चिम) कोण की दिशाओं की दीवारों में प्रवाहित हो जाता है दीवारों में प्रवाहित होने से व वहाँ टकराने से शक्तिपुंज की आकाशीय ऊर्जा शक्ति, जैव ऊर्जा शक्ति में परिवर्तित हो जाती है, जो की शरीर को पुष्ट करती है और अपने दैनिक कार्यों को करने में जो ऊर्जा आवश्यक होती है उसका एकत्रण व संचार करती है। दोनों तरफ से जब यह नैऋत्य कोण में टकराती है तो अधिकतम जैव शक्ति का सृजन करती है, अतः जैव शक्ति को एकत्रित व शोषित करने के व परिवर्तित करके भवन में प्रेषित करने के लिए ही नैऋत्य व इसके आसपास के हिस्से का भारी होना आवश्यक है चूँकि जीवनोपयोगी जैवशक्ति का सबसे अधिक घनत्व इसी क्षेत्र में होता है। मैं वास्तुशास्त्र के ऐसे अनगिनत वैज्ञानिक परिमाप दे सकता हूँ, लेकिन इसकी बृहत्-विस्तृत चर्चा अन्यत्र हो सकती है। मेरा हेतू इस blog के माध्यम से इतना मात्र ही है कि वास्तुशास्त्र पूरी तरह से आज की वैज्ञानिक सोच पर आधारित शास्त्र है।

 

Blog no: 27 Date: 29/5/2015

डॉ. जितेन्द्र व्यास (अंतर्राष्ट्रीय ज्योतिषी)

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