श्राद्ध पक्ष की वैज्ञानिकता का आधार ज्योतिष by Dr. Jitendra Vyas
मानव की मृत्यु के बाद उसका शरीर यहीं पृथ्वी पर रह जाता है और आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है, यही भारतीय दर्शन का सर्वमान्य सिद्धांत है। हमारा लिंग-शरीर, शरीर को भोग कर मृत्यु के बाद हमारे शरीर छोड़ को देता है। हमारे सनातन सम्प्रदाय में दार्शनिक चिंतन की परम्परा प्राचीनतम है तो दर्शन में एक प्रश्न उठता है कि मानव की मृत्यु के बाद क्या होता है ? इसका सर्वोत्तम उत्तर हमारे वैदिक वाङ्ग्मय और पौराणिक वाङ्ग्मय में ही मिलता है। आज के कई तथाकथित आधुनिक लोग श्राद्ध को लेकर उपहास उड़ाते हैं अतः आज मैंने इस Blog में श्राद्ध का पौराणिक व ज्योतिषीय आधार बता कर सभी प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास किया है।
श्राद्ध की पौराणिकता को “हरिवंश पुराण” में बतलाया है कि – जब ब्रह्मा ने सृष्टि रचना करके सभी देवताओं को भिन्न-भिन्न विभाग वितरित कर दिये तब इन्द्र, यम, कुबेर आदि देव अपने-अपने कार्यक्षेत्र को लेकर गर्वित हो गए तथा उन्होनें ब्रह्मा जी की तरफ पलटकर भी नहीं देखा और उनके लिए कोई श्रद्धा नहीं दिखलाई, ऐसी स्थिति में ब्रह्मा जी बड़े दुखी व रूष्ठ हुये उसी दुखी मन से उन्होंनें नई योनि की रचना कर दी तथा इस नई योनि की सृष्टि कर एक आदेश प्रसारित कर दिया की देवता गण अपने पुत्रों के होते हुये भी, उन्हें अपने पितरों के लिए श्रद्धा-पूर्वक ‘श्राद्ध’ करना ही पड़ेगा। मेरा मानना है कि इसी “श्रद्धा” शब्द के मौलिक स्वरूप को सृष्टि में आत्मसात करवाने के लिए यह “श्राद्ध” शब्द बना है। अतः हमारे यहाँ श्राद्ध का विधान तो अनादि काल से है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में श्रीराम को अपने पिता राजा दशरथ का तर्पण करने का प्रसंग बताया है, जब श्रीराम को अपने वनवास काल में (जब श्रीराम को साढ़ेसाती चल रही थी, मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि जो भी व्यक्ति इस तिर्यक् लोक में आया है उसे ग्रह जकड़ लेते हैं) अपने पिता की मृत्यु का संदेश मिला तो उन्होंनें इंगुदी फल अर्थात् बेर के फल गूदे से उनका तर्पण किया। ऐसे और कई प्रसंग हमारे शास्त्रों में मिलते हैं।
श्राद्ध कर्म का वैज्ञानिक व ज्योतिषीय स्वरूप भी मैं आपको यहाँ बता देता हूँ, हमारे श्राद्ध पक्ष के आधार के लिए ग्रहों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। ग्रहों में मानव जीवन का आधार पृथ्वी ग्रह है, हमारी देवसृष्टि का मूल आधार सूर्य ग्रह है और हमारी पितृसृष्टि मूलाधार चन्द्र ग्रह है। शास्त्रों में कहा गया है कि “यत् पिंडे तत् ब्राह्मंडे” तो हमारे शरीर की पसलियाँ 24 होती हैं और सूर्य की परमा क्रांति के स्थूलांश भी 24 ही होते हैं। मनुष्य का कटिपर्यन्त (कमर तक का) का बायाँ भाग सूर्य का उत्तरायण तथा दायाँ भाग सूर्य का दक्षिणायन होता है। चन्द्र प्राण है और सूर्य आत्मा हैं। मृत्यु के बाद भी पितृप्राण चन्द्र ग्रह से ही संबन्धित होता है तथा चन्द्रमा के ऊर्ध्वभाग से प्रेतपिण्डों का घनिष्ट संबंध है अतः उन्हें भौतिक पिण्ड दान द्वारा निश्चय ही तृप्त किया जा सकता है और उसे ही हम “श्राद्ध कर्म” कहते हैं।
वैसे तो श्राद्ध के कई प्रकार हैं, प्रति माह अमावस्या को होने वाला श्राद्ध “पार्वण श्राद्ध” कहलाता है तथा प्रेत-पितर की वार्षिक तिथि पर होने वाला श्राद्ध “एकोदिष्ट” होता है। पितरों की आवास भूमि रूप में चन्द्रमण्डल ही महान आत्मस्वरूप पितरों का आलय स्थान है अतः सूर्य कन्या राशि में जब रहता है तब आश्विन माह होता ही है, इसी माह के पूरे कृष्ण पक्ष में श्राद्ध की विशेष महता होती है। भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी में गजच्छाया योग प्रारम्भ होता है और उसी दिन से पितरप्राण भूमण्डल की ओर आने लगते हैं तथा कार्तिक कृष्ण अमावस्या अर्थात् दीपावली को ये पितर पराङ्ग्मूख हो जाते हैं।
एक बार किसी तथाकथित अनभिज्ञ आधुनिक मानुष ने जिज्ञाशावश मुझे ये प्रश्न किया कि आप ब्राह्मण है, लेकिन मुझे कभी भी ये समझ नहीं आया कि ब्राह्मणभोज से पितर कैसे संतुष्ट हो सकते हैं और कुत्तों व कौओं की श्राद्ध कर्म में क्या योग्यता है ? मैं मुस्कराया और बोला ब्राह्मण भोज का विधान शास्त्रार्थ है क्योंकि विद्वत शुद्ध-सात्विक ब्राह्मण के शरीर में सर्वदेवमूर्ति सांतपन अग्नि रहती है अतः व्यक्ति विशेष द्वारा श्राद्ध कर्म में श्रद्धापूर्वक परोसा हुया स्वधान्न ब्राह्मण द्वारा पितृ तृप्ति का कारण बनता है। रही बात श्वान व कोओं की महता की? तो जब मनुष्य अपने प्राण त्याग देता है तो पितरप्राण परलोक जाते हैं तब उन पर “याम्य, श्याव और शबल” नामक श्वाप्राणों का आक्रमण होता है अतः श्वान व कोओं की तृप्ति से पितरों उनके प्रति हिंसक भाव समाप्त हो जाता है और सभी पितर तृप्त हो जाते हैं तथा तृप्त हुये पितर हमें तृप्त करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि –
गयायां पिण्डदानेन त्रिभिर्पुत्रस्य पुत्रदा ॥”
अर्थात् पुत्र को पुत्रत्व तभी सार्थक होता है जब वह पहले तो जीवित माता–पिता की सेवासुश्रुषा करता है तथा मृत्युपरान्त मृत्यु तिथि पर श्राद्ध करे, गया में जाकर उनका पिण्डदान करें। मनुष्य के श्राद्ध के लिए दर्श संज्ञका ही सर्वश्रेष्ठ कही गयी है।
* पुर्णिमा को यदि किसी व्यक्ति कि मृत्यु हो तो उनका श्राद्ध अमावस्या या द्वादशी को सम्पन्न किया जाना चाहिए, ऐसा शास्त्रकारों का कथन है।
* सन्यासियों का पिण्डदान मात्र द्वादशी को करना चाहिए।
* यदि किसी व्यक्ति की अकाल मृत्यु (आत्महत्या, दुर्घटना, शस्त्र इत्यादि से) हो तो ऐसे पितरों का श्राद्ध श्राद्ध चतुर्दशी को ही करना चाहिए, चाहे व्यक्ति विशेष की मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो।
* चतुर्दशी को मरे हुये लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी को नहीं करके अमावस्या को करना चाहिए।
Blog No. 42, Date: 28/9/2015
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