यक्षिणी मंत्र साधना (अकूट लक्ष्मी प्राप्ति) के वैदिक नियम by Dr. Jitendra Vyas
आज यह Blog मैंने उन लाखों साधकों के लिए लिखा है जो सात्विक साधना द्वारा लक्ष्मी के याचक हैं, अपने सुखी जीवन के लिए कई वर्षों से लक्ष्मी याचना में लगे हुये हैं परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिल रही, अतः मुझे विश्वास है की मेरा यह ब्लॉग उनके इस प्रयास में सहायक सिद्ध होगा । वस्तुतः सिर्फ यक्षिणी के लिए ही नहीं बल्कि प्रत्येक साधना के लिए साधक का चिंतन पूर्ण सात्विक होना ही चाहिए, जब एक सामान्य स्त्री भी आपको देखकर आपके मनोभाव का पता आपकी दृष्टि से लगा लेती है तो फिर अपार शक्ति संपन्न यक्षिणी भला क्यूँ कर आपके मनोभाव को नहीं समझ पाएंगी। जैसा चिंतन हमारे मन में होता है तदनुरूप ही साधक के चारों और रहने वाला ओरा भी होते जाता है, भले ही सामान्य मानव अपनी सामान्य दृष्टि से उस ओरा को नहीं देख पाता हो पर जिनकी आकाश दृष्टि और दिव्य दृष्टि जाग्रत होती है,उनसे ये सूक्ष्म परिवर्तन नहीं छुपाया जा सकता है। तामसिक भाव से युक्त होने पर साधक का ओरा गहरे धूसर वर्ण का ह जाता है और ये एक ऐसा रंग है जिससे निकलने वाली किरने दृश्य या अदृश्य रूप में मन को उच्चाटित ही करती हैं। और ये किरणें अन्य रंगों की प्रभावी किरणों के मुकाबले कही ज्यादा तीव्र गति से संवेदन शील प्राणियों में असुरक्षा को पनपाती हैं,जिसके कारण उस प्राणी, मानव या वर्ग को तुमसे असुरक्षा का अहसास होता है। ऐसे में वे कदापि उत्सुक नहीं होंगे तुम्हारे समक्ष आने के लिए और यक्षिणी तो साक्षात् शक्ति का ही पूर्नंश होती हैं अतः उनसे आपके मन के सुक्ष्मतिसुक्ष्म परिवर्तन भी नहीं छुप पाते. अतः साधक को मन के विकारों को दूर करके ही साधना पथ पर बढ़ना चाहिए,साधना का मूल उद्देश्य ही अपने मन को व्यर्थ के भ्रम जाल से मुक्त कर विकार रहित हो अपनी समस्त न्यूनता पर विजय पाकर मानसिक और आत्मिक रूप से स्वतंत्र होना है।
मंत्र मात्र किसी शब्द विशेष का समूह नहीं होता है. बल्कि जब सद्गुरु अपने स्वयं के प्राणों से घर्षित कर शिष्य या साधक को मंत्र प्रदान करते हैं तो वो अभीष्ट सिद्धि प्रदान करने वाला दिव्यास्त्र ही हो जाता है, हाँ ये सही है की साधक के प्रारब्ध के कारण उस पर एक प्रकार का आवरण आ जाता है जिससे साधक को मंत्र का प्रभाव कुछ समय तक दृष्टिगोचर नहीं हो पाता परन्तु जैसे जैसे साधक मंत्र जप में अपनी एकाग्रता और समय बढाता जाता है या उसका जप प्रगाढ़ होते जाता है वैसे वैसे वो आवरण शिथिल होते जाता है और अंत में पूरी तरह से नष्ट हो जाता और बाकी रह जाता है तो पूर्ण दैदीप्यमान मन्त्र जो साधक के मनोवांछित को प्रदान करने समर्थ होता है. इसीलिए कहा जाता है की जितना ज्यादा जप होगा उतना ज्यादा आप सफलता के नजदीक होते जाओगे।
मन्त्र कैसे कार्य करता है ?
मन्त्र का चयन कभी भी ग्रन्थ देखकर नहीं किया जाना चाहिए बल्कि मंत्र की अपने गुरु से विधिवत प्राप्ति की जनि चाहिए अर्थात गुरु के चरणों में जाकर अपने अनुकूल मन्त्र प्राप्ति की याचना करनी चाहिए.तब गुरु रिपु,सार्थक और और स्व प्राणों से घर्षित मंत्र साधक की सफलता के लिए अपने आशीर्वाद के साथ प्रदान करते हैं.अधिकांश साधक इस भय से की न जाने हम जो साधना कर रहे हैं उसे जानकर गुरुदेव हमारे बारे में क्या सोचेंगे अपने गुरु से साधना और मन्त्र के बारे में कोई बात नहीं करते हैं, पर आप खुद ही सोचो की उस परब्रम्ह गुरु सत्ता से भला क्या छुपाया जा सकता है और आपको सफलता प्रदान कौन करेगा ? वही गुरु ना, तब सफलतादायक मन्त्र भी तो आप उन्ही से प्राप्त कर पाओगे ,उनके श्रीमुख से मन्त्र की मूल ध्वनि और उसका आरोह अवरोह भी आप को भली भांति समझ में आ जायेगा. यदि किसी मजबूरी वश उनके श्रीचरणों में जा पाए तब उनके द्वारा निर्देशित या लिखित मन्त्र की साधना उनसे पूर्ण विनम्रभाव से मानसिक आज्ञा लेकर ही करना चाहिए.और यदि इसी मध्य आपको गुरुधाम जाने का अवसर प्राप्त हो जाये तो उनसे मिलकर अपना जप मन्त्र बता दे ताकि यदि उच्चारण में या मन्त्र में कोई मात्र या वर्ण दोष हो या गलती से वो आपके शत्रुकुल का हो तो गुरु उसका परिहार कर सके.
मन्त्र का पुरश्चरण करना पड़ता है, तभी सफलता मिलती है।
गुरु के द्वारा निर्दिष्ट जप संख्या को क्रम विशेष से निर्धारित अवधि में पूर्ण करना ही पुरश्चरण कहलाता है तथा इस अवधि में साधक को संयमित जीवन यापन करना पड़ता है , इन दिवसों में वो सामाजिक कार्यों से दूरी बनाये रखता है.
पुरश्चरण के पांच अंग होते हैं-
जप- इसमें मंत्र के देवी या देवता का विधिवत पंचोपचार या षोडशोपचार से पूजन किया जाता है,इन उपचारों के अतिरिक्त देवता पूजन का विशेष क्रम तांत्रिक साधना में किया जाता है।
भूमि शोधन- साधना कक्ष के स्थान का पूजन भूमि शोधन कहलाता है.द्वार देवताओं का पूजन कर धरती को अर्ध्य प्रदान करे,फिर आसान शोधन मंत्र से भूमि पर पुष्प,अक्षत आदि अर्पित कर आसान बिछाए और उस पर बैठे।
देह शोधन- साधक प्राणायाम संपन्न करता है,फिर भूत शुद्धि,मातृकाओं से न्यास, अपने इष्ट मन्त्र आर ऋष्यादिन्यास,करन्यास आदि संपन्न करने से साधक का शरीर शुद्ध हो जाता है .
द्रव्यदिशोधन- साधक की साधना का अनिवार्य अस्त्र होती है उसकी साधना सामग्री,इसमें साधना में प्रायोजित सभी सामग्री जैसे, यन्त्र, माला,पुष्प,दीप,धुप,वस्त्र आदि सभी सामग्री आ जाती है, इनका पूर्ण रूपेण मन्त्रों केर द्वारा शोधन किया जाता है तत्पश्चात आगे की क्रिया की जानी चाहिए, (द्रव्यशोधन एक अनिवार्य और लंबी साधनात्मक क्रिया है जिसका पूर्ण साधनात्मक विवरण इसी पत्रिका में अन्यत्र दिया जा रहा है) माला पूर्ण रूपेण संस्कारित होना चाहिए, असंस्कृत माला से जप करने पर सफलता तो मिलती नहीं उलटे मानसिक तनाव की अप देवताओं के द्वारा प्राप्ति होती है वो भी मुफ्त में यदि जप काल में साधक अखंड दीपक प्रज्वलित कर ले तो कही ज्यादा अनुकूल रहता है और यदि ऐसा न हो सके तो कम से कम जप काल में दीपक न बुझने पाए ऐसी व्यवस्था कर लेनी चाहिए।
होम- नित्य प्रति के जप का दशांश हवन नित्य यदि कर दिया जाये तो उचित होता है ,कई व्यक्ति हवन के बदले दशांश जप कर लेते हैं , पर मेरे मतानुसार हवन करना कही ज्यादा अनुकूल और लाभदायक होता है.क्योंकि हवन करने से मंत्र दीप्त होता है और उसमे विशेष चैतन्यता आती है.
तर्पण- हवन करने के बाद बड़े से ताम्बे के बर्तन में या किसी सरोवर में हवन की मात्र का दशांश तर्पण करे. बर्तन को अष्टगंध,कपूर,दूर्वा आदि मिश्रित जल से पूरित कर दे और जो भी देवता या देवी हो उसका नाम लेकर ‘तर्पयामि नमः’ कह कर जल अर्पित करें.
मार्जन- तर्पण के बाद उसकी दशांश संख्या से सरोवर में खड़े होकर अपने सिर पर दूर्वा द्वारा कुम्भ मुद्रा से देवता का नाम लेकर “अभिषिन्चामि नमः’ कहकर जल का अभिषेक करें.
उसी दिवस या अंतिम दिवस ब्राम्हण भोज और कुमारी भोज का आयोजन करे, तत् पश्चात अपनी साधना की पूर्णता प्राप्ति के लिए गुरु के श्री चरणों में प्रार्थना ज्ञापित करे. यदि कोई इस प्रकार का क्रम साधना में अपनाता है तो उसे निश्चय ही अनुकूलता मिलती ही है.
किन स्थानों पर साधना करने से यक्षिणी साधना में शीघ्र सफलता मिलती है ?
सिद्धपीठों,गुरु गृह,नदी तट,पर्वत शिखर,एकांत वन,विल्व या पीपल वृक्ष के नीचे, साधना करने से सफलता शीघ्र ही मिलती है इस साधना को यदि कामाख्या पीठ के सौभाग्य कुंड या प्रांगण में संपन्न किया जाये या फिर अलकापुरी में या पचमढ़ी,माउन्ट आबू,हिडिम्बा मंदिर आदि स्थानों पर साधना करने से कही ज्यादा अनुकूलता मिलती है, यदि ऐसा संभव ना हो पाए तो घर में भी ये साधना की जा सकती है पर साधना काल के मध्य कोई और उस कमरे में ना जाने पाए।
आगे की विधि गुरु मुखी है सम्पर्क करें: – 09928391270, www.drjitendraastro.com
Blog no. 48 Date – 9/1/2016