“आदित्य हृदय-स्तोत्रम् से सूर्य ग्रह के लिए अभीष्ट सिद्धि : एक विवेचना” by Dr. Jitendra Vyas
ग्रहाधीनं जगत्सर्वं, ग्रहाधीना: नरावरा: ।
कालज्ञानं ग्रहाधीनं, ग्रहा: कर्मफलप्रदा ।। (बृहस्पतिसंहिता १/६)
शास्त्र कहते हैं कि सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के बाद ज्योतिषी ही एक ऐसा व्यक्ति है जो ज्योतिष शास्त्र के द्वारा मनुष्यों के भविष्य के बारे में निश्चित जानकारी दे सकता है१ क्योंकि यह तो प्रत्यक्ष शास्त्र है, विश्व के बाकी सभी विषय(शास्त्र) तो विवाद के विषय हैं।२ यथा –
अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् ।
प्रत्यक्षं ज्योतिषम् शास्त्रम् चन्द्रार्कौ यत्र साक्षिणो ॥
हमारे शास्त्रकारों/ज्योतिर्विदों ने वैदिक काल से जातक की जगत में व्याप्त सभी ग्रहों से जनित पीड़ाओं को शमन करने के लिए उपाय बतलाए हैं, यह उपाय आठ प्रकार (औषध, तन्त्र, यन्त्र, रत्न, नियम, जप, यत्न और मंत्र) के हैं, क्योंकि ज्योतिषी तो पाञ्च-अंगो (तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण) से बलवान होकर चार अंगो (हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल सेना) धारी चक्रवती सम्राट से भी बली होता है ।३
चतुरंग बलो राजा जगतीं वशमानयेत् ।
अहं पंचाङ्गबलवान् आकाशम् वशमानये ॥
ज्योतिर्विद मानते हैं कि ‘मंत्र/स्तोत्र/कवच/बीजमंत्र’ इत्यादि का ग्रह जनित पीड़ाओं को शांत करने में विशेष योगदान है, इसी पथ पर मेरा यह शोधपत्र ‘आदित्य हृदय-स्तोत्रम्’ के महत्व पर प्रकाश डालेगा । रामायण के युद्धकाण्ड४ में शोकाकुल भगवान राम ने सूर्य-होरा में वाल्मीकिकृत ‘आदित्य हृदय-स्तोत्रम्’ का पाठ करके ही त्रिकालज्ञ रावण का वध किया था । इस विशेष स्तोत्र के मनन मात्र से जातक पर शुभ प्रभाव को जानने के लिए चराचर जगत में सर्वप्रथम “आदित्य” अर्थात सूर्य के मूल अर्थ को जानना पड़ेगा।
‘आदित्य हृदय-स्तोत्रम्’ में आदित्य शब्द का अर्थ साक्षात् परमात्मा है आदित्य से सभी ऋतुएँ हैं, यही कालचक्र के प्रणेता है और प्रणवरूप है । आदित्य से ही सभी जीव एवं जगत की सभी योनियाँ उत्पन्न होती है, और इसी में ही विलीन हो जाती है, इसलिए प्राणीमात्र के लिए आदित्य की आराधना परम आवश्यक है, जिसका निमित यह स्तोत्र है । ब्रह्माण्ड मण्डल को एक अकेले आदित्य ही तपाते हैं । इनसे ही पंचभूतो (अग्नि, जल, वायु, आकाश तथा पृथ्वी) की उत्पत्ति हुई । देवताओं की उत्पत्ति का कारण भी सूर्य को ही माना गया है। अतः केवल सूर्य के निमित स्तोत्र का पाठ ही सभी ग्रहों की अशुभ रश्मिओं को शांत करता है, क्योंकि प्राणीमात्र के हेतु, सृष्टिकर्ता तथा प्रत्यक्ष देवता होने के कारण यह सबके लिए उपास्य है।
आदित्य ही मनुष्य जगत में ऋतुओं का नियमन करके पृथ्वी के चार पूर्वादि दिशाओं एवं चार ईशानादि कोणों का निर्माण करता है ।५ ऋग्वेद अनुसार सूर्य के सात घोड़े६ ही उसकी सात किरणें है जो की जातक को रश्मिओं७ के रूप में प्राप्त होकर उसे जीवन देती है, अतः इसी कारण आदित्य की आराधना एवं उसके निमित स्तोत्र का पाठ आवश्यक है ।८ ‘आदित्य हृदय-स्तोत्रम्’ करने से ही जातक को प्रभावित करने वाली बारह परिधियाँ (१२ सूर्य संक्रान्तियां), एक चक्र (१ वर्ष, ३६० तिथि) और तीन नाभि (विशेषकर तीन ऋतुएँ गर्मी, सर्दी, वर्षा) शान्त होती है, जिसमें सम्पूर्ण जगत विद्यमान है ।९ सभी १२ लग्नों/राशिओं/नक्षत्रों जातकों पर किए गए शोधानुसार, यदि किसी भी दिन सूर्य-होरा में कोई भी पीड़ित जातक दिग्बन्ध:१० न्यास का संकल्प लेकर ‘आदित्य हृदय-स्तोत्रम्’ का पाठ करे तो यह जातक वर्ग के सभी अभीष्ट कार्य सिद्ध करवाने में दक्ष है ।
अथ दिग्बन्ध:
अर्क का सिरपर, ललाट पर रवि का न्यास करे, आंखों पर सूर्य का, कानों पर दिवाकर का न्यास करे, नासिका पर भानु का, मुख पर भास्कर का न्यास करे, होठों पर पर्जन्य का जिव्हा के बीच में तीक्ष्ण का न्यास करे । कण्ठ में सुवर्ण रेतस का, कन्धों पर तिग्मतेजा का, भुजाओं में पूषा का, पीठ में मित्र का न्यास करे । दाहिने हाथ में वरुण का, बाएँ हाथ में त्वष्टा का न्यास करे । उष्णकर का दोनों हाथों में न्यास करे । भानुमान का हृदय पर न्यास करे । उदर पर यम का, नाभि पर आदित्य का न्यास करे, कमर पर हंस का, छाती पर रुद्र का न्यास करे । घुटनों पर गोपति का, जंघाओं पर सविता का पैरों पर विवस्वान का, पिंडलियों में दिवाकर का न्यास करे । शरीर के बाहरी भाग में तमोध्वंस का, शरीर के अन्दर के भाग पर भाय का न्यास करे शरीर के सभी अंगों पर सहस्त्रान्शु का दिशि विदिशा में भग का न्यास करे । यह दिग्बन्ध है।
‘आदित्य हृदय-स्तोत्रम्’
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ।1।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ।2।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ।3।
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।4।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ।5।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ।6।
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ।7।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ।8।
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ।9।
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ।10।
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ।11।
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ।12।
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ।13।
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ।14।
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ।15।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ।16।
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ।17।
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ।18।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ।19।
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ।20।
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ।21।
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ।22।
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ।23।
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ।24।
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ।25।
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ।26।
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ।27।
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ।28।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ।29।
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ।30।
निम्नलिखित शोधानुभाव११ सारणी “आदित्य हृदय स्तोत्र” किस लग्न/राशि वाले जातकों को करने से क्या लाभ शीघ्र होगा उसके अनुसार प्रस्तुत की गयी है :-
1) मेष :- संतान सम्बन्धी समस्याएँ से मुक्ति
2) वृष :- स्वास्थ्य, जमीन, पैतृक संपत्ति सम्बन्धी समस्याएँ से मुक्ति
3) मिथुन :- दुर्घटना सम्बन्धी समस्याएँ से मुक्ति, सगे सम्बंधिओं से संबंध सुधार
4) कर्क :- शारीरिक कष्ट से मुक्ति, वित्त सम्बन्धी समस्याएँ से मुक्ति
5) सिंह :- किसी भी प्रकार की समस्या से मुक्ति
6) कन्या :- विदेश यात्रा , स्वास्थ्य, विवाह पक्ष
7) तुला :- शत्रुहंता प्रयोग, व्यापार, धनलाभ
8) वृश्चिक :- उच्च शिक्षा, अच्छी नोकरी
9) धनु :- विदेश व्यापार, आयुदाता, पैतृक संपत्ति
10)मकर :- अनायास लाभ, अच्छा स्वास्थ्य, दीर्घायु, लम्बा स्वास्थ्य लाभ ।
11)कुम्भ :- अच्छे सुखद जीवन के लिए, व्यापार वृद्धि, धनलाभ
12)मीन :- पद्दोनीति के लिए, कानूनी पचड़ों में लाभ, ऋण पूर्ति, शत्रुहंता ।
References:-
1. Those who know Astrology can only indicate in a way what will take place in future who else, except the creator
Brahma can say with certainty what will definitely happen? – The Astrology Magazine, Jan 1965, Page 3.
2. पीयूषधारा
3. ग्रह विज्ञान और आधुनिक समस्याएँ ; कारण एवं निवारण, डॉ. जितेन्द्र व्यास, प्रतिभा प्रकाशन, दिल्ली, 2014
4. युद्धकाण्ड/ वाल्मीकि रामायण / गीताप्रेस गोरखपुर/ उत्तर प्रदेश
5. पूर्वामनु प्रदिशम् पार्थिवानामृतून् प्रशासद्विदधावनुष्ठु – ऋग्वेद संहिता 1/95/3
6. अमी ये सप्तरश्मय: – ऋग्वेद संहिता 1/105/9
7. सूर्यस्य सप्त रश्मिभी: – ऋग्वेद संहिता 8/72/16
8. द्वादशारं न हि तज्जराय वर्वर्ति चक्र परिद्यामृत्स्य – ऋग्वेद संहिता 1/164/11
9. द्वादश प्रद्यश्चक्रमेकं त्रिणी नभ्यग्नि क उ तच्चिकेत ।।
तस्मिन्त्सांक त्रिशता न न शंकवो ऽ र्पिता: षष्टिर्न चलाचलास: ॥ – ऋग्वेद संहिता 1/164/48
10. आदित्य हृदय स्तोत्र / फूलचंद बुकसेलर / अजमेर
11. www.drjitendraastro.com/blog
Blog 118, Date: 22/5/2018
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