कर्मवाद और ज्योतिष by डॉ. जितेन्द्र व्यास
आज के समय में ज्योतिष विषय में अगाध श्रद्धा रखने वाले को भाग्यवादी कहा जाता है, तथा भाग्यवाद का अर्थ स्वकर्म से विमुख होना समझा जाता है, जबकि भाग्य(प्रारब्ध) कभी भी कर्म से दूर रहने को नहीं कहता, अपितु प्रारब्ध का निर्माण ही कर्म से होता है, अतः आज इस Blog में मैंने भाग्यवाद व कर्मवाद के संबंधों की विवेचना की है। मनुष्य जीवन में कर्म दो प्रकार के होते हैं
1) पूर्वजन्मोंपार्जित 2) इहजन्मोपार्जित (जो इसी जन्म में जो कर्म भागने पड़ते है वह हैं)
इन दोनों कर्मों के फलों को मानव अपने जीवन में भोगता है, इन पर उसका कोई वश नहीं चलता, इसके शुभाशुभ फलों को भोगना ही पड़ता है लेकिन जन्म पत्रिका व ग्रहयोग इन्हे जानने में हमें पूर्ण सहयोग करते हैं।
ललाट पट्टे लिखिता विधाता, षष्ठी दिने याअक्षर मालिका च ।
ताम् जन्मपत्री प्रकटीं विधत्ते, दीपो यथा वस्तु धनान्धकारे ॥
अर्थात जिस प्रकार घने अंधकार में कोई वस्तु दीपक या प्रकाश की सहायता के बिना दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार मनुष्य जीवन की भावी घटनाओं को जन्मपत्री रूपी दीपक से प्रकाशित कर प्रकट किया जा सकता है।
आधुनिक लोग ये कहते है कि हम ज्योतिष पर पर विश्वास नहीं करते हम तो केवल कर्म पे ही विश्वास करते हैं, वस्तुतः कर्म और भाग्य तो अभिन्न है क्योंकि ज्योतिष शस्त्र के फलित खण्ड का निर्माण कर्मवाद एवं भाग्यवाद के आधार पर ही हुआ है। जानते हैं कैसे? कर्म और प्रारब्ध को हम तीन भागों में विभक्त कर देते हैं,
1) प्रथम वे अक्षम्य कर्म एवं उनके फल होते हैं जिन्हे किसी भी उपाय या प्रयोग द्वारा बदला नहीं जा सकता। ये हमेशा नहीं रहते, किसी ग्रह विशेष के कालखण्ड में उसके परिणाम देखने को मिलते हैं, जिन्हे कोई भी अनुष्ठान, दान-पुण्य, स्टोन इत्यादि परिवर्तित नहीं कर सकता।
2) दूसरे प्रकार के कर्मो को क्षमायाचना (शांति, अनुष्ठान, दान-पुण्य, यंत्र, मंत्र इत्यादि) करने पर साधारण प्रताड़ना के बाद अधिक लाभ हो सकता है।
3) तीसरे सामान्य श्रेणी के कर्म होते हैं जो कि समय के साथ कुछ उपायों (नग, बीसायंत्र) से दुष्परिणामों को स्वतः ही समाप्त कर देते हैं।
विज्ञ ज्योतिषी ही आपकी कुंडली में से इन तीनों कर्मो के असर व फलित को जान सकता है।
ग्रह, नक्षत्र, राशियाँ एवं अन्य ब्रह्मांड स्थित पिंड को सतत प्रभावित करते रहते हैं और इसी कारण उसके कर्म को प्रभावित करते रहते हैं, कर्म के प्रभाव से ही भाग्य प्रभावित होता है और यही कारण है कि जिससे ज्योतिषीय ग्रह स्थितियाँ मनुष्य के भाग्यदर्शन में सहायक सिद्ध होती है। स्थूल रूप से कुंडली के 12 भावों को तीन भागों में विभक्त किया गया है, ये हैं केन्द्र (1/4/7/10 भाव), पणकर (2/5/8/11) तथा आपोक्लिम (3/6/9/12) जो ग्रह केंद में बैठा है वह पूर्वजन्मकृत कर्मों के फल का प्रदाता है तथा आपोक्लिम स्थान के ग्रहों से स्थान व दृष्टि संबंध बना रहा हो तो अपरिवर्तनशील कर्मफल को दर्शाता है।
पणकर स्थान के ग्रह इहजन्मोपार्जित कर्मों का इसी जन्म में भोग करने वाले होते हैं तथा यह सुनिश्चित भी किया जा सकता है कि इस कर्म को किन कर्मों एवं प्रयोगों से बदला जा सकता है। लग्न से द्वादश भावों कि राशियाँ अपने पीछे के कर्म एवं योनि का दिग्दर्शन करती है। द्वादशांश चक्र में लग्नेश एवं लग्न राशि से कर्म के फल फल एवं संचित कर्म तथा प्रारब्ध निर्माण कि बाधाओं का बोध होता है।
Blog No. 54,Date: 10/4/2016