दीपावली में अग्निक्रीड़ा (दीप/पटाखे) क्यों आवश्यक? सूर्यसिद्धांतीय विश्लेषण blog written by Dr. JitendraVyas
आज सनातन धर्म के प्रत्येक त्योहार को तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग विवाद में घसित लेता है, आज दीपावली भी इससे अछूता नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने अग्निक्रीड़ा अर्थात पटाखे इत्यादियों पर रोक लगा दी है, मीडिया का एक वर्ग, छद्म हिन्दू और छद्म सांप्रदायिक लोगों ने सनातन त्योहारों के मनाने के तरीकों पर टिप्पणियाँ आरंभ कर दी। आज इस ब्लॉग में, मैं आपको शास्त्रार्थ संदर्भों से यह बताऊंगा कि दीपावली पर रोशनी करना, दीपप्रज्वलन करना, अग्निक्रीडा (पटखे इत्यादि) चलाना क्यो आवश्यक है?
समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले थे। उनमें दो रत्न श्रीलक्ष्मी एवं भगवान धन्वन्तरि भी थे। ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से यदि देखें तो पौराणिक कथा का महत्व अपना अलग है और ज्योतिषीय ग्रह गति का अलग। ज्योतिषशास्त्र में सूर्य को सभी ग्रहों का केंद्र तथा राजा माना गया है। सूर्य की बारह संक्रांतियाँ होती हैं। नाड़ी वृत्त मध्य में होता है तथा तीन उत्तर को एवं तीन दक्षिण की ओर क्रांतिवृत्त होते हैं। जहां विषुवत रेखा है वहाँ अधिकतर भाग जलयुक्त या समुद्र है। सूर्य 6 माह उत्तर गोल में (जिसे देवलोक कहते हैं) तथा 6 माह दक्षिण गोल में (जिसे यमलोक य राक्षस लोक भी कहते हैं) रहता है। मेष एवं तुला की संक्रांति पर सूर्य नाड़ी वृत्त पर रहता है और उसे देव राक्षस अपनी-अपनी ओर छह-छह माह तक खींचते रहते हैं। मंदराचल पर्वत ही नाड़ीवृत्त है, वासुकी नाग क्रांतिवृत्त है जिसके एक भाग में मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या राशि है तो दूसरे (दक्षिणी) भाग में तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ, मीन राशि हैं। भगवान विष्णु ही सूर्य हैं क्योंकि सूर्य का पर्याय विष्णु भी होता है और इस समुद्र मंथन में आधार बनकर बड़ी भारी भूमिका निभाते हैं। ब्रह्मा एवं शिव अपने हाथों से विष्णु की महिमा की रक्षा करने के लिए नाड़ीवृत्त की सीमा बनाए रखते हैं और उसी से चौदह रत्न निकलते हैं जो सृष्टि प्रक्रिया में बड़ी भारी भूमिका निभाते हैं। ब्रह्मा अलौकिक शक्ति के प्रतीक हैं तो शिव कल्याण के प्रतीक हैं। चंद्रमा ही शिव है। शिव की जटाओं में वही विराजमान है और चन्द्र-सूर्य आज भी अमावस्या एवं पूर्णिमा को निरंतर समुद्र मंथन करते आ रहे हैं उसी के परिणामस्वरूप मेघ बनते हैं, ऋतुएं आती हैं, वर्षा होती है, औषधियाँ, धन-धान्य एवं समृद्धि होती है।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को भगवान धन्वन्तरि अमृतकलश हाथ में लेकर समुद्र से उत्पन्न हुए। ठीक दो दिन बाद ही लक्ष्मीजी का जन्म हुआ। लौकिक दृष्टि से तो हमें दो दिन बाद ही लगता है, लेकिन ब्रह्मा के दो दिन मानव के कई वर्षों के होते हैं और देव दानवों के भी दो दिन मानें तब भी यह समय दो वर्ष का होता है क्योंकि एक दिन में हमारे 6 महीने की रात और 6 महीने का दिन होता है। इसके पीछे भी उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर 6-6 माह के दिन-रात होने का राज है। उत्तरी ध्रुव को देवों का स्थान य दक्षिणी ध्रुव को राक्षसों का स्थान माना गया है।
पहले धन्वन्तरिजी के अवतार के बाद स्वयं लक्ष्मीजी कार्तिक की अमावस्या को प्रकट हुई, जिनका सर्वसम्मति से भगवान विष्णु ने वरण कर लिया। लक्ष्मी एवं विष्णु वास्तव में सूर्य एवं चंद्रमा हैं। इन दोनों के द्वारा ही ग्रह-नक्षत्र अपनी-अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन करते हुए प्रजावर्ग की पालना कर संपन्नता प्रदान करते हैं। इससे उत्पन्न तेज ही इसका कारण है। तेज ही संसार का सार है। तेज ही श्री का मुख्य रूप है। ईश्वर ने तीन प्रकार के तेज पृथ्वीवासियों को अपने निर्वाह के लिए प्रदान किए है, सूर्य, चंद्रमा और अग्नि। सूर्य इन सब में प्रखर या प्रमुख है तथा मुख्य तेज है। ज्योतिषशास्त्र में मेष राशि का सूर्य उच्च का एवं तुला का नीच होता है इसलिए तुला के सूर्य का प्रभाव विकृत रूप से होता है। अमावस्या के दिन सूर्य एवं चंद्रमा एक साथ रहने से चंद्रमा तेज विहीन रहता है, इसलिए ऐसे समय में, तृतीय तेज अग्नि ही हमारा एक मात्र आधार होता है, इसी वैज्ञानिक तत्व को लेकर दीपावली के दिन भगवती महालक्ष्मी की उपासना में अग्नि की प्रधानता रखी गयी है, अनेक प्रकार की अग्निक्रीडा, दीप की पंक्तियों की पूजा करना प्रचलित है। अतः ज्योतिष शास्त्र के प्रमुख ग्रहों, द्वारा भी भौतिक जगत के चौदह ही नहीं, अपितु असंख्य उपरत्न पृथ्वी वासियों को प्रदान किए जा चुके हैं, और किए जा रहे हैं, अतः सूर्य-चन्द्र एवं ग्रहों को या यों कहें ज्योतिष शास्त्र को सर्व प्रथम सम्मान मिलना चाहिए॥
Blog no.111 Date:18/10/2017
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Dr. Jitendra Vyas
(International Author/ Columnist/ Astrologer/ Blogger)