ज्योतिष सार
भारतीय आध्यात्मिक सांस्कृतिक परंपरा के तथ्यपरक गांभीर्य से अपरिचित, कुछ पाश्चात्य एंव उन्हीं के अंध-पदानुगामी स्वदेशी समालोचकों की दृष्टि में ज्योतिष-शास्त्र का अध्ययन निरर्थक है, क्योंकि मानव जीवन में इसका कोई क्रियात्मक योगदान नहीं है क्योंकि चार्वाक के वंशधर भौतिकवादी जनों ने अपनी कथित दर्शन-दृष्टि के अनुसार भविष्य की कल्पना को कपोल-कल्पित सिद्ध कर दिया है तथा कुछ शास्त्र के तथाकथित व्यवसायियों ने इस गूढ़, गंभीर विषय के संदर्भ को अन्यथा अर्थ व भाव में रख कर मानवीय सत्ता को नियति की काष्ठ पुत्तलिका मात्र सिद्ध कर दिया है अत: मैनें उपरोक्त प्रसंग तथा अनुस्यूत ज्योतिर्विज्ञान का मर्म समझने के लिए ज्योतिष में रिसर्च की है ।
जातक का जीवन एक जटिल पहेली है प्रत्येक व्यक्ति उसका रहस्योद्घाटन करना चाहता है, अत: वह भविष्य जानने के लिए उत्सुक रहता है “द्वितीयाद् वै भयं भवति” सूत्रानुसार प्रायः हर प्राणी मेँ भविष्य को लेकर जन्मजात असुरक्षा का भाव रहता है। ज्योतिष परम पवित्र एव दिव्य विध्या है “सा विध्या या विमुक्तये” विध्या हमेशा मुक्ति के अर्थ में ग्राह्य रही है अत: जातक को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने वाला माध्यम यह ज्योतिष विध्या ही है । मैंने अन्वेषण तथा सतत् प्रयास से कई पाण्डुलिपि रूपी कई पुस्तकों की रचना की है, जो मानव जगत के कल्याण करने में सक्षम हो सकेगी जो की काल चक्र का प्रामाणिक इतिवृत्त प्रस्तुत करते हुए कालातीत सत्ता के साक्षात का मार्ग उद्घाटित कर सकेगी ।
ज्योतिष का अर्थ ही प्रकाश है, तपस्वी वैदिक ऋषियों ने अप्रतिहत-गति-अंतरप्रज्ञा से प्रत्यक्ष किया था की परमात्मा की सृष्टि में एक विशिष्ट नैतिक व्यवस्था है जो निखिल ब्रह्मांड के संचालन को सुव्यवस्थित रखती है इसे वे ‘ऋत’ कहते थे “ऋतं च सत्य चाभीद्धोत्तसोध्यजायत्” इसी ऋत् के सम्पूर्ण सिद्धांत पर आधारित ज्योतिष शास्त्र है, मेरे यह कथन वेदांग ज्योतिष की प्रत्यक्ष तथ्यात्मक व्याख्या प्रस्तुत करते हुए, चैतन्य में प्रयोजनात्मक विस्तार का रहस्योन्मीलन भी प्रस्तुत करते हैं।
मानव जीवन या योनी प्राप्त करना कोई आकस्मिक घटना नहीं है नाहिं उनसे जुड़े भोग आकस्मिक हैं, वास्तव में तो ब्रह्मांड की कोई भी घटना आकस्मिक नहीं होती है, “नासतो विध्यते भाव: नाभावो विध्यते सत:” प्रत्येक कार्य का एक कारण होता है, “कर्मणा बध्यते जंतुर्विधया या तु प्रमुच्यते” वैदिक संहिता “ऋत एवं कर्म सिद्धांत” पर आधारित है। यहाँ वेदांग ज्योतिषानुसार संसार में जीव का आना तथा क्रमबद्ध रहस्यों का शनै: शनै: भोगना, भारतीय ऋषियों व दार्शनिकों की वैज्ञानिकता को स्वंय सिद्ध करता है। संसार में प्राणी जन्म लेता है क्योंकि अनेकानेक जन्मों के कर्म ही उसे जन्म लेने के लिए बाध्य करते हैं और वे तीन प्रकार के है – संचित, प्रारब्ध एंव क्रियमाण कर्म । ऋग्वेदानुसार-
सर्वत्र संसार, नर-नारी, पशु-पक्षी, काल तक भी ग्रहों के अधीन है, संसार में जातक का जन्म कर्मों के अनुसार होता है जो की ग्रहों के अधीन रहते हैं। प्राणी के प्रथम जीवन में प्रारंभिक कर्म से लेकर वर्तमान क्षण तक किए गए कर्म संचित कर्म कहलाते हैं, संचित कर्मों का वह भाग जिसका भोग प्रारंभ हो चुका है वह प्रारब्ध तथा आगे जो कर्म किए जाएंगे उनकी संज्ञा क्रियमाण होगी अत: प्रारब्ध कर्मानुसार ही व्यक्ति कुछ निश्चित सांस्कारिक प्रवृत्तियाँ लेकर एक स्थान एवं समय (जन्म पत्रिका) विशेष में जन्म लेता है एवं तदनुरूप सुख-दुखादी परिस्थितियां भी भोगता रहता है-
इन भोगों की व्यवस्था शास्त्र के तीन विभागों में है “सिद्धांत संहिता हौरारूपं स्कंध्त्रयात्मकम्” ज्योतिष शास्त्र का हौरा विभाग जन्मकालीन ग्रह-नक्षत्र व राशियों की जन्मांग के द्दाद्श भाव में स्थिति से शुभाशुभ फलों का विस्तृत विवेचन करता है, दर्शन का एक सर्वमान्य सिद्धांत है -“यत् पिंडे तत्ब्रहमांडे” यह पिण्ड (मानव शरीर) एवं ब्रह्मांड की एक रूपता निरूपित करता है यहाँ इस सिद्धांत का ज्योतिषीय प्रतिपादन प्रस्तुत करते हुए ज्योर्तीयमंडल को काल पुरुष से संबद्ध किया है, काल पुरुष ब्रह्मांड में परमात्मा का प्रतिनिधित्व करता है, यह एक निरपेक्ष सत्ता है, यह न तो किसी की उपेक्षा करता है और न ही किसी से अपेक्षा रखता है। इस साम्राज्य में पक्षपात की संज्ञा ही निरर्थक है, यह किसी को सुख –दुख: नहीं देते अपितु उनकी सूचनाएँ देते हैं – “फलानिग्रहचारेन सूचयन्ती मनीषिण:” अतः यह सत्य है की ग्रहों की रश्मियां मानवीय व्यवहार को प्रभावित कर तदनुरूप आचरण (कर्म) करने पर बाध्य करती है अतः इसमें अंतर्निहित रहस्य प्रमाणित होता है कि हम अपने पूर्व कर्मानुसार ही समय एवं स्थान विशेष में रहने के लिए बाध्य होते हैं जहां इन प्रतिकूल व अनुकूल रश्मियों का प्रभाव हमारी परिस्थितियों को प्रकट करने में सहायक बनता है । जातक को कर्मवाद व भाग्यवाद में स्पष्ट अंतर स्मरण रहना चाहिए, कर्म विशेष का कारण नियामक संदर्भित ग्रह नहीं वरन स्वयं हमारा ही कोई पूर्व कर्म रहा है-
अतः व्यक्तिगत व समष्टिगत समस्याओं के कारण कर्म ही है जिनके कारण व निवारण का विस्तृत विवेचन अपनी शोध पुस्तकों में की है । यहाँ ज्योतिष मे प्रस्तुत सामग्री का प्रतिपादन कोई में अपने आप से नहीं कर रहा हूँ यह तो वह अमूल्य धरोहर है जिसे ऋग्वेदकाल से अपनाया जा रहा है। ज्योतिष में ग्रहों के संचार रहस्यों को गंभीरता से समझने का प्रयास किया गया है, मैंने अपने शोध कार्यों में यह पाया की जीवन स्थलों पर घटने वाली घटनायेँ एवं घटी घटनायें इस प्रकार व्यवस्थित की गई होती हैं कि जातक उनसे पदे-पदे आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण करता है, यदि पाठक वर्ग कर्म विज्ञान एवं ग्रहों कि भूमिका के मर्म को हदयंगम कर ले, तो वह अपने जीवन का उदात्तीकरण कर सकने में समर्थ होंगे । यदि वर्तमान कष्टों को अपना पुराना ऋण मानकर रूप से उनसे असंपृक्त रहने का अभ्यास करते हुए क्रियमाण कर्मों का निवृत्तिपरक लक्ष्य निर्धारित कर ले, तो अवश्य ही दुखो: एवं अभावों का रूपान्तरण संभव हो सकेगा। पराम्बा के विशिष्ट अनुग्रह से आसक्ति में अश्रु जब निरासक्ति के प्रेमाश्रुओं में परिवर्तित होते हैं तब जातक के जीवन का कृतार्थ हो जाता है। प्रारब्ध तो भोग कर ही क्षय होता है, क्रियमाण हमारे नियंत्रण में आ सकता है तथा ये हमें मुक्त भी करा सकता है। यदि अनिष्ट ग्रहों का शमन किया जाए तो।-
अनिष्ट ग्रहों कि शांति के लिए देवज्ञों ने औषध, मंत्र, यंत्र, तंत्र, यत्न, यज्ञ और रत्न उपचार कि व्यवस्था प्रस्तुत कि है, इसमे मंत्रों का आश्रय लेना सर्वोपरि और अचूक समाधान है। जिससे जातक बंधन से मुक्त होता है। मंत्र का शाब्दिक अर्थ है “मानतात् त्रायते” मनन करने से जो त्राण करे, जातक के जीवन में आये हर प्रकार के अवरोध को अनावृत्त एवं निःशेष करते हुए उसका सरंक्षण करें। यदि जातक(हमलोग) ज्योतिष के मूल के मुहूर्त का महत्व समझे और इसे तत्काल जागरण का आह्वान मानकर इस कर्म क्षेत्र रूपी महाभारत में कर्म कुठार को पैना करते हुए जीवनरूपी युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाए तो विजयश्री हमसे दूर नहीं रह सकती है “यतो धर्मस्ततो जय:” विष्णुधर्मोत्तर पुराण में इसका प्रमाण उपलब्ध है-
मनुष्यों की गोचर कुंडली या जन्मपत्रिकाओं में जो अनिष्ट सूचक ग्रह होतें हैं उनकी यत्नपूर्वक पूजा या शमन करना चाहिए क्योंकि पूजित ग्रह सदैव शुभप्रद हो जाते हैं । यदि जातक युक्तिपूर्वक जीवनयापन करता है तो वह आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक ऋणों के निवारण कर सकने मे समर्थ हो जाता है अतः ज्योतिष सार को प्रस्तुत करने में यही मेरा अभीष्ट या उदेश्य है।
अंत मे, मेरा यह कहना है की मनुष्य स्वयं को नियति पाश में जकड़ने से बचाये, स्वयं को भाग्य के हाथों गिरवी न रखे तथा अपने कर्म व भाग्य बंधन कि सूक्ष्म बेड़ियों को समझे एवं उनसें मुक्त होने का सफल संघर्ष करे इस कार्य मे वेदांग ज्योतिष सदैव आपके साथ है। इसमें यदि आप सफल हुए तो राहू रूपी अविधा कि छाया से अपनी सूर्य रूपी आत्मा को पृथक् करने मे सफल हो सकेंगे और ज्योतिषी, पथ-प्रदर्शक व लेखक के रूप में यही मेरी मंगलमयी कामना रहेगी।