फलित में जन्मांग के इतर षोडशवर्ग भी महत्वपूर्ण

फलित में जन्मांग के इतर षोडश वर्ग भी महत्वपूर्ण blog by डॉ. जितेन्द्र व्यास

आज भौतिक व संघर्ष युग में ज्योतिष सबसे तेज से व्यवहार में आने वाला विषय है, प्रतिदिन ज्योतिषी भी बढ़ते जा रहे हैं, कुछ सूत्रों को पढ़कर व  जानकार ही कोई भी shodashvargaज्योतिषी बन बैठता है, वह लोग मात्र जन्मांग कुण्डली का विश्लेषण करके ही फलित कर देते हैं, लेकिन जानकारी अभ्यास के अभाव में शेष षोडश वर्ग का विवेचन नहीं कर पाते हैं, आज इस अपने इस blog सभी सोलह प्रकार की कुंडलियों को परिभाषित किया गया है कि षोडश वर्ग कि कोनसी कुण्डली से क्या देखा जाता है?

1. लग्न कुंडली (डी-1) जन्म के समय पूर्व क्षितिज में उदित राशि को लग्न मानकर बनायी गयी कुंडली को लग्न/जन्म कुंडली कहते हैं।जन्म के समय चन्द्र द्वारा गृहीत राशि को लग्न मान कर बनायी गयी कुंडली को राशि कुंडली कहते हैं। वर्गों के लिये लग्न कुंडली ही आधार होती है। फल प्राप्ति के लिये जन्मकुंडली में योग होना आवश्यक है। वर्ग कुंडली का महत्व या तो उस फल की पुष्टि करना, नकारना या उसके स्वरूप को कम या अधिक करना होता है।

2. होरा (डी-2) उपयोग: होरा कुंडली का अध्ययन मुख्यतः जातक की आर्थिक समृद्धि को जांचने के लिये किया जाता है। द्वितीय भाव के अन्य कारक तत्वों के लिये भी इसे देखा जा सकता है।आर्थिक समृद्धि से तात्पर्य स्वयं अर्जित किये हुए धन से लेना चाहिये न कि परिवार से प्राप्त किये हुए होरा के स्वामी: सूर्य की होरा का स्वामित्व देवों (स्व प्रयास से ही धन प्राप्ति होगी) का और चन्द्र की होरा का स्वामित्व पितृ/पूर्वजों (मेहनत की अपेक्षा फल अधिक क्योंकि पूर्वजों का आशीर्वाद होता है) का होता है। कुछ मुख्य नियम – होरा कुंडली में पुरुष ग्रहों (सूर्य, गुरु, मंगल) का सूर्य की होरा में होना समृद्धि के लिये शुभ होता है। स्त्री ग्रहों (चन्द्र, शुक्र) और शनि का फल चन्द्र होरा में शुभ होता है। बुध, दोनों होरा में शुभ होते हैं। – सूर्य की होरा में स्थित आत्मकारक (सर्वाधिक भोगांश वाला ग्रह) उन्नति के लिये शुभ माना जाता है।

3. द्रेष्काण (डी-3) उपयोगः द्रेष्काण कुंडली का अध्ययन मुख्यतः जातक के छोटे भाई-बहन का होना/न होना, उनसे संबंधित सुख-दुःख, जातक का स्वभाव और रुचियों के लिये किया जाता है। तृतीय भाव के अन्य कारक तत्वों के लिये भी इसे देखा जा सकता है। 22 वें द्रेष्काण की गणना जातक की मृत्यु के स्वरूप को जानने के लिये की जाती है। द्रेष्काण के स्वामी: प्रथम द्रेष्काण के स्वामी नारद, द्वितीय के अगस्त्य और तृतीय के दुर्वासा ऋषि। द्रेष्काण स्वामी अपने स्वभावानुसार फल देते हैं। कुछ मुख्य नियम: – द्रेष्काण कुंडली में जन्मकुंडली के तृतीयेश और कारक मंगल का सुस्थित होना बहन-भाइयों से अच्छे संबंध दर्शाता है। – द्रेष्काण कुंडली का बली लग्न/ लग्नेश भाई-बहन का होना सुनिश्चित करता है। – द्रेष्काण कुंडली के तृतीय/ तृतीयेश का निरीक्षण भी सहोदरों के होने या न होने में भूमिका निभाता है। – द्रेष्काण कुंडली के एकादश/एकादशेश का निरीक्षण बड़े भाई-बहनों के लिये किया जाता है।

4. चतुर्थांश (डी-4) उपयोग: चतुर्थांश कुंडली का अध्ययन जातक की चल-अचल सम्पत्ति, वाहन, चरित्र, माता-सुख, स्कूली शिक्षा आदि के लिये किया जाता है। मंगल सम्पति का, बुध शिक्षा का, चन्द्र माता का और शुक्र वाहन के कारक हैं। चतुर्थांश के स्वामीः प्रत्येक भाग के क्रमशः स्वामी हैं: सनक (अपने अनुसार चलना जैसे एक पागल/ सनकी व्यक्ति), सानन्द (सफलता या असफलता खुशी-खुशी स्वीकार करने वाला), सनत (हिम्मत न हारने वाला) और सनातन (हर परिस्थिति में प्रसन्न)। कुछ मुख्य नियम: – चतुर्थांश कुंडली के लग्न/लग्नेश अगर बली हों तो जातक के सुखों में स्थायित्व बना रहता है। लग्न पर गुरु (धन का कारक) की दृष्टि आर्थिक तौर पर शुभ होती है। – चतुर्थांश कुंडली में लग्नेश और चतुर्थेश की परस्पर शुभ स्थिति माता से सम्बन्ध का स्तर दर्शाती है । – चतुर्थ भाव और शुक्र बली हो तो जातक को वाहन आदि सुखों की प्राप्ति होती है। – चतुर्थ भाव और मंगल बली हो तो जातक को सम्पत्ति (चर एवं अचल) आदि सुखों की प्राप्ति होती है। – चतुर्थ भाव के साथ चन्द्र भी पीड़ित हो तो जातक का चरित्र अच्छा नहीं होता और जातक धूर्त होता है।

5. सप्तमांश (डी-7) उपयोग: यह वर्ग, जन्मकुंडली के पंचम भाव से सम्बंधित प्रजनन/ संतति सम्बंधित फलों के सूक्ष्म रूप को दर्शाता है। इससे पंचम भाव में अन्य कारक तत्वों (उच्च शिक्षा डी 24 से देखते हैं), मनन/ मन्त्र, जीवन-साथी की समृद्धि, सृजनात्मकता आदि भी देख सकते हैं। सप्तमांश के स्वामी: विषम राशियों में स्थित ग्रहों के सप्तमांशों का स्वभाव क्रमशः क्षार (खट्टा/कठोर खनिज), क्षीर (खीर), दधि (दही, किसी भी प्रकार का आकार लेने में सक्षम पर खट्टा भी), इक्षुरस (गन्ने की भांति सीधा/कठोर परन्तु बहुत मिठास भी), मद्य (शराब) और शुद्ध जल। सम राशि में यह क्रम विपरीत होता है, अर्थात पहले सप्तमांश में स्थित ग्रह का स्वभाव शुद्ध जल के समान, दूसरे का मद्य/नशा के समान आदि। कुछ मुख्य नियम: – सप्तमांश कुंडली का बली लग्न/ लग्नेश संतति उत्पत्ति सुनिश्चित करते हैं। – सप्तमांश कुंडली में पंचम/पंचमेश एवं कारक गुरु की शुभ स्थिति संतति उत्पत्ति की पुष्टि करते हैं। – जन्मकुंडली के लग्नेश की सप्तमांश कुंडली में शुभ स्थिति संतान से अच्छे संबंधों की ओर इशारा करती है। – पुत्र सहम की जन्म एवं सप्तमांश कुंडली में स्थिति भी संतान के साथ संबंधों की गुणवत्ता को दर्शाती है। – बीज/क्षेत्र स्फुट से प्रजनन एवं उत्पत्ति की क्षमता का आकलन होता है।

6. नवांश (डी-9) उपयोग: नवांश कुंडली का प्रयोग जन्मकुंडली के पूरक के रूप में किया जाता है। मुख्य रूप से नवांश को विवाह के होने/न होने, वैवाहिक जीवन की गुणवत्ता और जीवन साथी का चरित्र आदि को जानने के लिये किया जाता है। नवमांश के स्वामी: चर राशि में देव, मनुष्य, राक्षस, स्थिर में मनुष्य, राक्षस, देव तथा द्विस्वभाव में राक्षस, देव, मनुष्य नवांश भाव के अधिपति होते हैं। अर्थात, राशि के नौ हिस्से होने से यह आवृत्ति तीन-तीन बार होगी। कुछ मुख्य नियम: – जन्मकुंडली और नवांश कुंडली के लग्नेश के अच्छे संबंध जातक और उसके जीवन साथी के बीच परस्पर सहयोग, सुखमय संबंध और समन्वय दर्शाते हैं। – अगर जन्मकुंडली का सप्तमेश और नवांश कुंडली लग्न दोनों बली हों तो वैवाहिक जीवन सुखमय होता है। नवांश में सप्तम/सप्तमेश का निरीक्षण इसकी पुष्टि या मात्रा को कम/ज्यादा करता है। – नवांश में राजा सूर्य और रानी चन्द्र का एक दूसरे से अधिकतम दूरी यानी सम-सप्तक होने को वैवाहिक सुखों की दृष्टि से शुभ नहीं माना जाता है, जैसे आपसी विचारों में तालमेल की कमी, परस्पर सहयोग की कमी या परस्पर वैमनस्य का भाव आदि। – जन्मकुंडली के सप्तम, सप्तमेश और कारक शुक्र (पुरुष)/गुरु (स्त्री) की शुभ स्थिति विवाह होने की संभावनाओं को दर्शाती है। नवांश का बली लग्न विवाह होने की पुष्टि या मात्रा को कम/ज्यादा करता है। अधिकतर नवांश का बली लग्न विवाह को सुनिश्चित करता है। – जन्मकुंडली के लग्नेश एवं सप्तमेश की नवांश में शुभ स्थिति विवाह के होने, सामान्य उम्र में होने एवं विवाह पश्चात सुखी संबंधों का संकेत देती है। इन दोनों की स्थिति जन्म एवं नवांश कुंडली में परस्पर 6/8 या 2/12 होना अशुभ होता है। – गुरु का सप्तम/सप्तमेश से सम्बन्ध शीघ्र या विलम्ब से विवाह की प्रवृत्ति देता है। अर्थात, सामान्य उम्र में विवाह नहीं होता क्योंकि गुरु अंतिम सत्य की ओर प्रवृत्त करता है। – त्रिंशांश लग्न पर पीड़ा भी विवाह में विलम्ब कारक होती है।

7. दशमांश (डी-10) उपयोग: दशमांश कुंडली का अध्ययन जीवन वृत्ति एवं आजीविका से सम्बंधित उपलब्धियों (सफलता, उन्नति, असफलता, बाधा आदि) के लिये किया जाता है। इसके अध्ययन से जातक के व्यवसाय की दिशा भी इंगित होती है। दशमांशों के स्वामी: विषम राशियों में क्रम (प्रथम से दशम दशमांश तक) से इन्द्र, अग्नि, यम, राक्षस, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा और अनंत स्वामी है। सम राशि में विपरीत क्रम है अर्थात प्रथम दशमांश में स्वामी अनंत, द्वितीय के ब्रह्मा आदि। ग्रह अपने दशमांश स्वामी के स्वभावानुसार भी फल देगा। कुछ मुख्य नियम: – दशमांश कुंडली में लग्न/लग्नेश का सुस्थित, बली या शुभ प्रभाव में होने से जातक की सक्षमता का ज्ञान होता है। अर्थात, आजीविका में समस्याओं से सामना करने की क्षमता। – दशमांश कुंडली का दशम/दशमेश के बली होने पर आजीविका बिना बाधा/कठिनाइयों के सुचारु रूप से चलती रहती है। पीड़ा के अनुरूप ही मात्रा कम या अधिक होती है। – दशमांश कुंडली में कारक सूर्य का प्रसिद्धि, शनि का नौकरी, बुध का व्यवसाय और चन्द्र का मानसिक सबलता के लिए निरीक्षण करना चाहिये।

8. द्वादशांश (डी-12) उपयोग: जन्मकुंडली का द्वादश भाव पूर्व जन्म और आगामी जन्म की कड़ी के रूप में भी देखा जाता है क्योंकि यह मोक्ष का कारक और जन्मकुंडली का आखिरी भाव है। सामान्यतः द्वादशांश कुंडली का प्रयोग माता-पिता की प्रतिष्ठा (जैसे, सामाजिक और आर्थिक स्तर) एवं उनसे सम्बंधित सुख-दुःख का अध्ययन करने के लिये किया जाता है। द्वादशांशों के स्वामी: प्रथम चार द्वादशांशों के स्वामी क्रमशः गणेश, अश्विनी कुमार, यम और सर्प हैं और इसी कर्म की आवृत्ति आगे होती रहती है। कुछ मुख्य नियम: – पिता के कारक सूर्य और माता के कारक चन्द्र हैं। अतः इस वर्ग कुंडली में इनकी स्थिति का आकलन आवश्यक है। – इसके अतिरिक्त इस वर्ग कुंडली के लग्न और लग्नेश की स्थिति का विश्लेषण माता-पिता की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति ज्ञात करने के लिये करते हैं। इसके अतिरिक्त वर्ग कुंडली में निर्मित धन एवं राज योग भी सामाजिक एवं आर्थिक स्तर की पुष्टि करते हैं। – पिता की आयु के लिये नवम से अष्टम (चतुर्थ) और माता की आयु के लिये चतुर्थ से अष्टम (एकादश) का विश्लेषण भी किया जाता है।

9. षोडशांश (डी-16) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन वाहन सुख, जीवन की सामान्य खुशियां, विलासिता आदि के लिये किया जाता है। खुशियों से तात्पर्य चल-सुख से है जबकि डी-4 से स्थिर सुख देखा जाता है। चन्द्र की सोलह कलाओं की तरह राशि के सोलह हिस्से होते हैं। चन्द्र से सम्बन्ध होने के कारणवश इस वर्ग कुंडली से जातक की मानसिक सहनशीलता भी देखते हैं। कुछ मुख्य नियम: चं. – डी-16 वर्ग कुंडली में राजयोग एवं धनयोग अत्यधिक खुशियाँ एवं ऐश्वर्य देते हैं। – बली शुक्र (सांसारिक सुखों का कारक) समस्त सांसारिक विलासिता (वस्त्र, वाहन, स्त्री सुख आदि) देता हैपरन्तु अशुभ राशि में होने से कुछ हानि जैसे चोरी, वाहन दुर्घटना आदि भी हो सकती है। – बली/शुभ गुरु मानसिक संतुष्टि प्रदान करता है जिससे सुख की अनुभूति स्वतः ही होने लगती है।

10 विंशांश (डी-20) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन उन खुशियों को देखने के लिये किया जाता है जो आध्यात्मिकता एवं धार्मिक झुकाव या उनसे सम्बंधित क्रिया-कलापों से प्राप्त होती है। कुछ मुख्य नियम: प्रत्येक जीव में परमात्मा का ही अंश विद्यमान होता है परन्तु उसकी मात्रा अलग-अलग हो सकती है। मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर बने रहने के लिये आध्यात्मिक एवं धार्मिक उन्नति निरन्तर बनी रहनी आवश्यक है। डी-20 में निम्न तथ्यों पर ध्यान देना चाहिये। – डी-20 में शुभ एवं अशुभ योगों को देखें। जितने अधिक शुभ योग, उतनी ही अधिक आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की उन्नति। – डी-20 में लग्न/लग्नेश, पंचम/ पंचमेश और नवम/नवमेश का विश्लेषण करना चाहिये। – अगर विंशांश कुंडली का लग्न, जन्म कुंडली के लग्न से 6, 8, 12 की राशि है तो आध्यात्मिकता एवं धार्मिकता की उन्नति में बाधाएं होंगी। – सूर्य एवं शनि का बली होना शुभ संकेत है। – बली शुक्र होने पर यौन-जीवन पर नियंत्रण होता है जो उन्नति की लिये आवश्यक है।

11. चतुर्विंशांश (डी-24) उपयोग: सामान्यतः इस वर्ग कुंडली का अध्ययन शैक्षिक प्राप्तियों एवं ज्ञान से सम्बंधित फलों (सफलता, असफलता, बाधा आदि) के लिये किया जाता है। कुछ मुख्य नियम: – शिक्षा के लिये जन्म कुंडली में 4ए 4स्ए 5ए 5स् के अध्ययन के साथ-साथ इनकी स्थिति का डी 24 में भी अध्ययन आवश्यक है। दशानाथों का आकलन भी दोनों कुंडलियों में करना चाहिये। – डी 24 का बली लग्न/लग्नेश शिक्षा के सुचारु रूप से चलने को इंगित करता है। – सबसे बली ग्रह शिक्षा की दिशा भी इंगित करता है। – शिक्षा के कारक बुध और गुरु का भी जन्म एवं वर्ग कुंडली में आकलन करना चाहिये।

12. सप्तविंशांश (डी-27) उपयोग: इस वर्ग कुंडली को नक्षत्रांश भी कहते हैं क्योंकि इसके भी 27 भाग होते हैं। इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जातक की शारीरिक एवं मानसिक शक्ति को देखने के लिये किया जाता है। शारीरिक शक्ति से तात्पर्य है, रोग प्रतिरोधक क्षमता का और मानसिक शक्ति से तात्पर्य है, मानसिक सबलता या सहनशीलता। नक्षत्रों के स्वामी ही (अश्विनी कुमार, यम, अग्नि आदि) सप्तविंशांश के स्वामी होते हैं। ?कुछ मुख्य नियम: – प्रत्येक ग्रह अपने कारक तत्वों के आधार पर फल देता है। सूर्यः सामान्य स्वास्थ्य, पेट, हड्डी, दाहिनी आँख आदि। चन्द्र: रक्त सम्बंधित, बायीं आँख, मानसिक विकार आदि। मंगल: रक्तचाप, दुर्घटना, सर्जरी, हड्डी की मज्जा आदि। बुध: त्वचा सम्बंधित, वाणी, स्नायु तंत्र आदि। गुरु: मधुमेह, मोटापा आदि। शुक्र: यौन विकार आदि। शनि वायु संबंधित, कैंसर, नसें, पेट के रोग आदि। राहु/केतु: विष, कीटाणु सम्बंधित, छाले आदि। – वर्ग कुंडली में पीड़ित ग्रह सम्बंधित शारीरिक एवं मानसिक अवसाद देते हैं।

13. त्रिंशांश (डी-30) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जीवन की दुर्घटनाएं, बाधाएं, असफलता, दुर्भाग्य आदि के अध्ययन के लिये किया जाता है। इस वर्ग का अध्ययन जातक के नैतिक आचरण को देखने के लिये भी किया जाता है। इस वर्ग कुंडली में लग्न पर पीड़ा होने पर विवाह में देरी भी हो सकती है। कुछ मुख्य नियम: – इस वर्ग कुंडली में सूर्य और चन्द्र का विश्लेषण नहीं होता। – बाकी ग्रह अपनी भाव स्थिति एवं कारकत्वों के अनुसार बाधाओं (पीड़ित होने पर) को इंगित करते हैं। मंगल: क्रोध / गुस्सा / आक्रामकता), बुध: ईष्र्या, गुरुः अहंकार, शुक्र: कामुकता, शनिः नशा/लत, राहुः लोभ/लालच, केतुः गलत सोच आदि। – बली लग्न और लग्नेश बाधा रहित जीवन देते हैं। – चतुर्थ भाव पीड़ित होने पर नैतिक चरित्र में कमी होती है। – अपने ही त्रिशांश में स्थित ग्रह अपने कारकत्वों में वृद्धि करते हैं। – त्रिंशांश लग्न पर पीड़ा विवाह में विलम्ब कारक होती है।

14. खवेदांश (डी-40) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन शुभाशुभ फलों की मात्रा ज्ञात करने के लिये किया जाता है। उपरोक्त त्रिंशांश वर्णन में जातक के अशुभ फलों का अध्ययन था और खवेदांश में शुभ फलों का अध्ययन होता है। खवेदांशों के स्वामी: विष्णु, चन्द्र, मरीचि, त्वष्टा, धाता, शिव, रवि, यम, यक्ष, गन्धर्व, काल व वरुण ये बारी-बारी से खवेदांश के अधिपति होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – लग्न और लग्नेश के बली होने पर शुभ घटनाएं अधिक होती हैं। – त्रिकोण के स्वामी भी सुस्थित एवं शुभ प्रभाव में हो तो शुभ फल अध् िाक होते हैं। – शुभ फलों के लिये सूर्य एवं चंद्रमा का भी सुस्थित होना आवश्यक है। उपरोक्त उदाहरण में, वर्ग कुंडली का लग्न नवमेश गुरु से दृष्ट है-शुभ, राहु/केतु के अक्ष में-अशुभ, लग्नेश मंगल एकादश में शुभ। अर्थात, शुभ फलों की अधिकता। पंचमेश सूर्य दिग्बली होकर दशम में होकर अति शुभ है परन्तु शत्रु राशि में होने से उन्नति तो देगा परन्तु शिखर की नहीं। नवमेश गुरु नवम भाव में स्वराशि एवं मित्र राशिस्थ होकर बली है। अर्थात, त्रिकोणेशों की स्थिति अच्छी है जो शुभ फलों की मात्रा में वृद्धि दर्शाती है।

15. अक्षवेदांश (डी-45) उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जातक के चरित्र, व्यवहार, आचरण एवं सामान्य शुभाशुभ प्रभावों के अध्ययन के लिये किया जाता है। अक्षवेदांशों के स्वामी: चर राशियों में क्रमशः ब्रह्मा, महेश, विष्णु, स्थिर राशियों में महेश, विष्णु, ब्रह्मा एवं द्विस्वभाव राशियों में विष्णु, ब्रह्मा, महेश अधिदेव होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – सूर्य, आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैं। शुभ राशि एवं शुभ प्रभाव युक्त सूर्य सात्विक आत्मा के गुण दर्शायेगा और अशुभ सूर्य उससे विपरीत। – चन्द्र, मन का कारक होने से मानसिक नैतिकता या अनैतिकता प्रदर्शित करते हैं। – लग्नेश, तृतीयेश, षष्ठेश एवं नवमेश का शुभ राशि में होना जातक की सोच में शुद्धता एवं पवित्रता दर्शाता है।

16 षष्ठ्यांश (डी-60) पाराशर जी ने इस वर्ग कुंडली को जन्मकुंडली एवं नवांश कुंडली से भी अधिक महत्व दिया है, परन्तु इसके प्रयोग का अधिक प्रचलन नहीं है क्योंकि इसके लिये जन्म समय का बिल्कुल सही होना आवश्यक होता है। लगभग 2 मिनट के अंतर से षष्ठ्यांश कुंडली बदल जाती है। उपयोग: इस वर्ग कुंडली का अध्ययन जन्मकुंडली की भांति सभी पहलुओं पर विचार के लिये किया जा सकता है। षष्ठ्यांशों के स्वामी: एक राशि में कुल साठ षष्ठ्यांश होते हैं। पाराशर जी ने विषम राशियों में घोर, राक्षस, देव, कुबेर आदि क्रम से तीस और सम राशियों इन्दुरेखा, भ्रमण, पयोधि आदि क्रम से तीस अधिपति वर्णित किये हैं। ये सभी अधिपति नाम तुल्य शुभाशुभ फल देने वाले होते हैं। कुछ मुख्य नियम: – इस वर्ग में बनने वाले योगों का अध्ययन भी करना चाहिये। – किसी भी परिणाम के पूर्वानुमान के लिये तीनों अर्थात जन्म, नवांश एवं षष्ठ्यांश कुंडली देखकर ही फलित करना चाहिये।  एक अच्छा ज्योतिषी, जो मानव सेवा को अपना धर्म मानता है, सदैव वर्ग अध्ययन के बाद ही फलित करता है जिससे ऋषियों द्वारा दिये गये ज्ञान का नियमों सहित उपयोग हो और फलित की सटीकता रहे और ज्योतिषी का धर्म पूर्ण हो!

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blog no. 95, Date: 11/8/2017

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